श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
शास्त्रों में प्रकृति, जीव और परमात्मा- इन तीनों का अलग-अलग वर्णन आता है; परंतु यहाँ ‘अपि’ पद से भगवान एक विलक्षण भाव की ओर लक्ष्य कराते हैं कि शास्त्रों में परमात्मा के जिस सर्वव्यापक स्वरूप का वर्णन हुआ है, वह तो मैं हूँ ही, इसके साथ ही संपूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञरूप से पृथक्-पृथक् दिखने वाला भी मैं ही हूँ। अतः प्रस्तुत पदों का यही भाव है कि क्षेत्रज्ञरूप से परमात्मा ही है- ऐसा जानकर साधक मेरे साथ अभिन्नता का अनुभव करे। स्वयं संसार से भिन्न और परमात्मा से अभिन्न है। इसलिए यह नियम है कि संसार का ज्ञान तभी होता है, जब उससे सर्वथा भिन्नता का अनुभव किया जाए। तात्पर्य है कि संसार से रागरहित होकर ही संसार के वास्तविक स्वरूप को जाना जा सकता है। परंतु परमात्मा का ज्ञान उनसे अभिन्न होने से ही होता है। इसलिए परमात्मा का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कराने के लिए भगवान क्षेत्रज्ञ के साथ अपनी अपनी अभिन्नता बता रहे हैं। इस अभिन्नता को यतार्थरूप से जानने पर परमात्मा का वास्तविक ज्ञान हो जाता है। ‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम’- क्षेत्र (शरीर) की संपूर्ण संसार के साथ एकता है और क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) की मेरे साथ एकता है- ऐसा जो क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ का ज्ञान है, वही मेरे मत में यथार्थ ‘ज्ञान’ है। ‘मतं मम’ कहने का तात्पर्य है कि संसार में अनेक विद्याओं का, अनेक भाषाओं का, अनेक लिपियों का, अनेक कलाओं का, तीनों लोक और चौदह भुवनों का जो ज्ञान है, वह वास्तविक ज्ञान नहीं है। कारण कि वह ज्ञान सांसारिक व्यवहार में काम में आने वाला होते हुए भी संसार में फँसाने वाला होने से अज्ञान ही है। वास्तविक ज्ञान तो वही है, जिससे स्वयं का शरीर से संबंध-विच्छेद हो जाए और फिर संसार में जन्म न हो, संसार की परतंत्रता न हो। यही ज्ञान भगवान के मत में यथार्थ ज्ञान है। संबंधः- पूर्वश्लोक में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ज्ञान को ही अपने मत में ज्ञान बताकर अब भगवान क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग को सुनने की आज्ञा देते हैं। |
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