श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
चेतन की रुचि परमात्मा की तरफ जाने की है; किंतु भूल से उसने जड के साथ तादात्म्य कर लिया। तादात्म्य में जो जड-अंश है, उसका आकर्षण (प्रवृत्ति) जडता की तरफ होने से वही सजातीयता के कारण जड बुद्धि आदि का द्रष्टा बनता है। यह नियम है कि देखना केवल सजातीयता में ही संभव होता है अर्थात दृश्य, दर्शन और द्रष्टा के एक ही जाति के होने से देखना होता है, अन्यता नहीं। इस नियम से यह पता लगता है कि स्वयं (जीवात्मा) जब तक बुद्धि आदि का द्रष्टा रहता है, तब तक उसमें बुद्धि की जाति की जड वस्तु है अर्थात जड प्रकृति के साथ उसका माना हुआ संबंध है। यह माना हुआ संबंध ही सब अनर्थों का मूल है। इसी माने हुए संबंध के कारण वह संपूर्ण जड प्रकृति अर्थात बुद्धि, मन, इंद्रियाँ, विषय, शरीर और पदार्थों का द्रष्टा बनता है। संबंधः उस क्षेत्रज्ञ का स्वरूप क्या है- इसको आगे के श्लोक में बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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