श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृग्ममेदम् । अर्थ- यह इस प्रकार का मेरा घोर रूप देखकर तेरे को व्यथा नहीं होनी चाहिए और मूढ़भाव भी नहीं होना चाहिए। अब निर्भय और प्रसन्न मन वाला होकर तू फिर उसी मेरे इस (चतुर्भुज) रूप को अच्छी तरह देख ले। व्याख्या- ‘मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृग्ममेदम्’- विकराल दाढ़ों के कारण भयभीत करने वाले मेरे मुखों में योद्धा लोग बड़ी तेजी से जा रहे हैं, उनमें से कई चूर्ण हुए सिरों सहित दाँतों के बीच में फँसे हुए दिख रहे हैं और मैं प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों द्वारा संपूर्ण लोगों का ग्रसन करते हुए उनको चारों ओर से चाट रहा हूँ- इस प्रकार के मेरे घोर रूप को देखकर तेरे को व्यथा नहीं होनी चाहिए, प्रत्युत प्रसन्नता होनी चाहिए। तात्पर्य है कि पहले[1] तू जो मेरी कृपा को देखकर हर्षित हुआ था, तो मेरी कृपा की तरफ दृष्टि होने से तेरा हर्षित होना ठीक ही था, पर यह व्यथित होना ठीक नहीं है। अर्जुन ने जो पहले कहा है- ‘प्रव्यथितास्तथाहम्’[2] और ‘प्रव्यथितान्तरात्मा’।[3] उसी के उत्तर में भगवान यहाँ कहते हैं- ‘मा ते व्यथा।’ मैं कृपा करके ही ऐसा रूप दिखा रहा हूँ। इसको देखकर तेरे को मोहित नहीं होना चाहिए- ‘मा च विमूढभावः।’ दूसरी बात, मैं तो प्रसन्न ही हूँ और अपनी प्रसन्नता से ही तेरे को यह रूप दिखा रहा हूँ; परंतु तू जो बार-बार यह कह रहा है कि ‘प्रसन्न हो जाओ; प्रसन्न हो जाओ’, यही तेरा विमूढ़भाव है। तू इसको छोड़ दे। तीसरी बात, पहले तूने कहा था कि मेरा मोह चला गया[4], पर वास्तव में तेरा मोह अभी नहीं गया है। तेरे को इस मोह को छोड़ देना चाहिए और निर्भय तथा प्रसन्न मन वाला होकर मेरा वह देवरूप देखना चाहिए। तेरा और मेरा जो संवाद है, यह तो प्रसन्नता से, आनंदरूप से, लीलारूप से होना चाहिए। इसमें भय और मोह बिलकुल नहीं होने चाहिए। मैं तेरे कहे अनुसार घोड़े हाँकता हूँ, बातें करता हूँ, विश्वरूप दिखाता हूँ आदि सब कुछ करने पर भी तूने मेरे में कोई विकृति देखी है क्या?[5] मेरे में कुछ अंतर आया है क्या? ऐसे ही मेरे विश्वरूप को देखकर तेरे में कोई भी कोई विकृति नहीं आनी चाहिए। हे अर्जुन! तेरे को जो भय लग रहा है, वह शरीर में अहंता-ममता (मैं-मेरापन) होने से ही लग रहा है अर्थात अहंता-ममता वाली चीज (शरीर) नष्ट न हो जाए, इसको लेकर तू भयभीत हो रहा है- यह तेरी मूर्खता है, अनजानपना है। इसको तू छोड़ दे। आज भी जिस किसी को जहाँ-कहीं जिस किसी से भी भय होता है, वह शरीर में अहंता-ममता होने से ही होता है। शरीर में अहंता-ममता होने से वह उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु (प्राणों) को रखना चाहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 11:45 में
- ↑ गीता 11:23
- ↑ गीता 11:24
- ↑ गीता 11:1
- ↑ अपने में कई तरह का परिवर्तन देखने पर भी अर्जुन सब अवस्थाओं में भगवान को निर्विकार ही मानते हैं, तभी तो उन्होंने गीता के आदि, मध्य तथा अंत में (गीता 1:21, 11।42 और 18।73 में) भगवान के लिए ‘अच्युत’ संबोधन का प्रयोग किया है।
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