श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
‘व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिंद प्रपश्य’- अर्जुन ने पैंतालीसवें श्लोक में कहा था- ‘भयेन च प्रव्यथितं मनो मे’; अतः भगवान ने ‘भयेन’ के लिए कहा है- ‘व्यपेतभीः’ अर्थात् तू भयरहित हो जा और ‘प्रव्यथितं मनः’ के लिए कहा है- ‘प्रीतमनाः’ अर्थात तू प्रसन्न मन वाला हो जा। भगवान ने विराटरूप में अर्जुन को जो चतुर्भुज रूप दिखाया था, उसी के लिए भगवान ‘पुनः’ पद देकर कह रहे हैं कि वही मेरा यह रूप तू फिर अच्छी तरह से देख ले। ‘तदेव’ कहने का तात्पर्य है कि तू देवरूप (विष्णुरूप) के साथ ब्रह्मा, शंकर आदि देवता और भयानक विश्वरूप नहीं देखना चाहता, केवल देवरूप ही देखना चाहता है; इसलिए वही रूप तू अच्छी तरह से देख ले। अर्जुन की प्रार्थना के अनुसार भगवान अभी जो रूप दिखाना चाहते हैं, उसके लिए भगवान ने यहाँ ‘इदम्’ शब्द का प्रयोग किया है। संजय और अर्जुन की दिव्यदृष्टि कब तक रही? संजय को वेदव्यास जी ने युद्ध के आरंभ में दिव्यदृष्टि दी थी,[1] जिससे वे धृतराष्ट्र को युद्ध के समाचार सुनाते रहे। परंतु अंत में जब दुर्योधन की मृत्यु पर संजय शोक से व्याकुल हो गए, तब संजय की वह दिव्यदृष्टि चली गयी।[2] अर्जुन के द्वारा विश्वरूप दिखाने की प्रार्थना करने पर भगवान ने अर्जुन को दिव्यदृष्टि दी- ‘दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्’[3] और अर्जुन विराटरूप भगवान के देवरूप, उग्ररूप आदि रूपों के दर्शन करने लगे। जब अर्जुन के सामने अत्युग्ररूप आया, तब वे डर गये और भगवान की स्तुति-प्रार्थना करते हुए कहने लगे कि ‘मेरा मन भय से व्यथित हो रहा है, आप मेरे को वही चतुर्भुज रूप दिखाइये।’ तब भगवान ने अपना चतुर्भुज रूप दिखाया और फिर द्विजुरूप से हो गये। इससे सिद्ध होता है कि यहाँ (उनचासवें श्लोक) तक ही अर्जुन की दिव्यदृष्टि रही। इक्यानवें श्लोक में स्वयं अर्जुन ने कहा है कि ‘मैं आपके सौम्य मनुष्यरूप को देखकर सचेत हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एष ते संजयो राजन् युद्धमेतद् वदिष्यति। एतस्य सर्वसंग्रामे न परोक्षं भविष्यति ।।
चक्षुषा संजयो राजन् दिव्येनैव समन्वितः। कथयिष्यति ते युद्धं सर्वज्ञश्च भविष्यति ।। (महा. भीष्म. 2।9-10)
‘राजन्! यह संजय आपको इस युद्ध का सब समाचार बताया करेगा। संपूर्ण संग्राम भूमि में कोई ऐसी बात नहीं होगी, जो इसके प्रत्यक्ष न हो। राजन! संजय दिव्यदृष्टि से संपन्न होकर सर्वज्ञ हो जाएगा और तुम्हें युद्ध की बात बतायेगा।’ - ↑ तव पुत्रे गते स्वर्गे शोकार्त्तस्य ममानध। ऋषिदत्तं प्रणष्टे तद् दिव्यदर्शित्वमद्य वै। (महा. सौप्तिक. 9।62)
‘निष्पाप नरेश! आपके पुत्र के स्वर्गलोक में चले जाने से मैं शोक से आतुर हो गया हूँ और महर्षि व्यास जी की दी हुई मेरी वह दिव्यदृष्टि भी अब नष्ट हो गयी है।’ - ↑ गीता 11:8
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