श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो । अर्थ- हे प्रभो! मेरे द्वारा आपका वह परम ऐश्वर रूप देखा जा सकता है- ऐसा अगर आप मानते हैं तो हे योगेश्वर! आप अपने उस अविनाशी स्वरूप को मुझे दिखा दीजिए। व्याख्या- ‘प्रभो’- ‘प्रभु’ नाम सर्व समर्थ का है, इसलिए इस संबोधन का भाव यह मालूम देता है कि यदि आप मेरे में विराट रूप देखने की सामर्थ्य मानते हैं, तब तो ठीक है; नहीं तो आप मेरे को ऐसी ऐसी सामर्थ्य दीजिए, जिससे मैं आपका वह ऐश्वर (ईश्वर-संबंधी) रूप देख सकूँ। ‘मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति’- इसका तात्पर्य है कि अगर आप अपना वह रूप नहीं दिखाएंगे, तो भी मैं यही मानूँगा कि आपका रूप तो वैसा ही है, जैसा आप कहते हैं, पर मैं उसको देखने का अधिकारी नहीं हूँ, योग्य नहीं हूँ, पात्र नहीं हूँ। इस प्रकार अर्जुन को भगवान के वचनों में किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं है, प्रत्युत दृढ़ विश्वास है। इसीलिए तो वे कहते कि आप मेरे को अपना विराट रूप दिखाइए। ‘योगेश्वर’- ‘योगेश्वर’ संबोधन देने का यह भाव मालूम देता है कि भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग, हठयोग, राजयोग, लययोग, मंत्रयोग आदि जितने भी योग हो सकते हैं, उन सबके आप मालिक हैं, इसलिए आप अपनी अलौकिक योगशक्ति से वह विराट रूप भी दिखा दीजिए। अर्जुन ने दसवें अध्याय सत्रहवें श्लोक में भगवान के लिए ‘योगिन्’ संबोधन दिया था अर्थात भगवान को योगी बताया था; परंतु अब अर्जुन ने भगवन के लिए ‘योगेश्वर’ संबोधन दिया है। अर्थात भगवान को संपूर्ण योगों का मालिक बताया है। कारण यह है कि दसवें अध्याय के आरंभ में अर्जुन की भगवान के प्रति जो धारणा थी, उस धारणा में अब बहुत परिवर्तन हुआ है। ‘ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्’- आपका वह स्वरूप तो अविनाशी ही है, जिससे अनन्त सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं, उसमें स्थित रहती हैं और उसी में लीन हो जाती हैं। आप अपने ऐसे अविनाशी स्वरूप के दर्शन कराइए। |
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