श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः । अर्थ- श्रीभगवान बोले- हे पृथानन्दन! अब मेरे अनेक तरह के, अनेक वर्णों और आकृतियों वाले सैकड़ों-हजारों दिव्यरूपों को दू देख। व्याख्या- ‘पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः’- अर्जुन की संकोच पूर्वक प्रार्थना को सुनकर भगवान अत्यधिक प्रसन्न हुए; अतः अर्जुन के लिए ‘पार्थ’ संबोधन का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि तू मेरे रूपों को देख। रूपों में भी तीन-चार नहीं, प्रत्युत सैकड़ों-हजारों रूपों को देख अर्थात अनगिनत रूपों को देख। भगवान ने जैसे विभूतियों के विषय कहा है कि मेरी विभूतियों का अंत नहीं आ सकता, ऐसे ही यहाँ भगवान ने अपने रूपों की अनन्तता बतायी है। ‘नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च’- अब भगवान उन रूपों की विशेषताओं का वर्णन करते हैं कि उनकी तरह-तरह की बनावट है। उनके रंग भी तरह-तरह के हैं अर्थात कोई किसी रंग का तो किसी रंग का, कोई पीला तो कोई लाल आदि-आदि। उनमें भी एक-एक रूप में कई तरह के रंग हैं। उन रूपों की आकृतियाँ भी तरह-तरह की हैं अर्थात कोई छोटा तो कोई मोटा, कोई लम्बा तो कोई चौड़ा आदि-आदि। जैसे पृथ्वी का एक छोटा-सा कण भी पृथ्वी ही है, ऐसे ही भगवान के अनन्त, अपार विश्वरूप का एक छोटा सा अंश होने के कारण यह संसार भी विश्वरूप ही है। परंतु यह हरेक के सामने दिव्य विश्वरूप से प्रकट नहीं है, प्रत्युत संसार रूप से ही प्रकट है। कारण कि मनुष्य की दृष्टि भगवान की तरफ न होकर नाशवान संसार की तरफ ही रहती है। जैसे अवतार लेने पर भगवान सबके सामने भगवत रूप से प्रकट नहीं रहते[1], प्रत्युत मनुष्य रूप से ही प्रकट रहते हैं, ऐसे ही विश्वरूप भगवान सबके सामने संसार रूप से ही प्रकट रहते हैं अर्थात हरेक को यह विश्वरूप संसार रूप से ही दिखता है। परंतु यहाँ भगवान अपने दिव्य अविनाशी विश्वरूप से साक्षात प्रकट होकर अर्जुन को कह रहे हैं कि तू मेरे दिव्य रूपों को देख। संबंध- पूर्वश्लोक में भगवान ने अपने विश्वरूप में तरह-तरह के वर्णों और आकृतियों को देखने की बात कही। अब आगे के श्लोक में देवताओं को देखने की बात कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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