श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
‘जयोऽस्मि’- विजय प्रत्येक प्राणी को प्रिय लगती है। विजय की यह विशेषता भगवान की है। इसलिए विजय को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। अपने मन के अनुसार अपनी विजय होने से जो सुख होता है, उसका उपभोग न करके उसमें भगवद्बुद्धि करनी चाहिए कि विजयरूप से भगवान आए हैं। ‘व्यवसायोऽस्मि’- व्यवसाय नाम एक निश्चय का है। इस एक निश्चय की भगवान ने गीता में बहुत महिमा गायी है; जैसे- कर्मयोग की निश्चयात्मिका बुद्धि एक होती है[2]; भोग और ऐश्वर्य में आसक्त पुरुषों की निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती[3] ‘अब तो मैं केवल भगवान का भजन ही करूँगा’- इस एक निश्चय के बल पर दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य को भी भगवान साधु बताते हैं।[4] इस प्रकार भगवान की तरफ चलने का जो निश्चय है, उसको भगवान ने अपनी विभूति बताया है। निश्चय को अपनी विभूति बताने का तात्पर्य है कि साधक को ऐसा निश्चय तो रखना ही चाहिए, पर इसको अपना गुण नहीं मानना चाहिए, प्रत्युत ऐसा मानना चाहिए कि यह भगवान की विभूति है और उन्हीं की कृपा से मुझे प्राप्त हुई है। ‘सत्त्वं सत्त्ववतामहम्’- सात्त्विक मनुष्यों में जो सत्त्वगुण है, जो सात्त्विक भाव और आचरण है, वह भी भगवान की विभूति है। तात्पर्य है कि रजोगुण और तमोगुण को दबाकर जो सात्त्विक भाव बढ़ता है, उस सात्त्विक भाव को साधक अपना गुण न मानकर भगवान की विभूति माने। तेज, व्यवसाय, सात्त्विक भाव आदि अपने में अथवा दूसरों में देखने में आयें तो साधक इनको अपना अथवा किसी वस्तु-व्यक्ति का गुण न माने, प्रत्युत भगवान का ही गुण माने। उन गुणों की तरफ दृष्टि जाने पर उनमें तत्त्वतः भगवान को देखकर भगवान को ही याद करना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सातवें अध्याय में जहाँ भगवान ने कारण रूप से विभूतियों का वर्णन किया है, वहाँ भी यही पद आया है- ‘तेजस्तेजस्विनामहम्’ (7।10)
- ↑ गीता 2:41
- ↑ गीता 2:44
- ↑ गीता 9:30
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