श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः। अर्थ- वृष्णिवंशियों में वासुदेव और पांडवों में धनञ्जय मैं हूँ। मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य भी मैं हूँ। व्याख्या- ‘वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि’- यहाँ भगवान श्रीकृष्ण के अवतार का वर्णन नहीं है, प्रत्युत वृष्णिवंशियों में अपनी जो विशेषता है, उस विशेषता को लेकर भगवान ने अपना विभूति रूप से वर्णन किया है। यहाँ भगवान का अपने को विभूति रूप से कहना तो संसार की दृष्टि से है, स्वरूप की दृष्टि से तो वे साक्षात भगवान ही हैं। इस अध्याय में जितनी विभूतियाँ आयी हैं, वे सब संसार की दृष्टि से ही हैं। तत्त्वतः तो वे परमात्म स्वरूप ही है। ‘पांडवानां धनञ्जयः’- पांडवों में अर्जुन की जो विशेषता है, वह विशेषता भगवान की ही है। इसलिए भगवान ने अर्जुन को अपनी विभूति बताया है। ‘मुनीनामप्यहं व्यासः’- वेद का चार भागों में विभाग, पुराण, उपपुराण, महाभारत आदि जो कुछ संस्कृत वांमय है, वह सब-का-सब व्यास जी की कृपा का ही फल है। आज भी कोई नयी रचना करता है तो उसे भी व्यास जी का ही उच्छिष्ट माना जाता है। कहा भी है- ‘व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्।’ इस तरह सब मुनियों में व्यास जी मुख्य हैं। इसलिए भगवान ने व्यास जी को अपनी विभूति बताया है। तात्पर्य है कि व्यास जी में विशेषता दिखते ही भगवान की याद आनी चाहिए कि यह सब विशेषता भगवान की है और भगवान से ही आयी है। ‘कवीनामुशना कविः’- शास्त्रीय सिद्धांतों को ठीक तरह से जानने वाले जितने भी पंडित हैं, वे सभी ‘कवि’ कहलाते हैं। उन सब कवियों में शुक्राचार्य जी मुख्य हैं। शुक्राचार्य जी संजीवनी विद्या के ज्ञाता हैं। इनकी शुक्रनीति प्रसिद्ध है। इस प्रकार अनेक गुणों के कारण भगवान ने इन्हें अपनी विभूति बताया है। इन विभूतियों की महत्ता देखकर कहीं भी बुद्धि अटके, तो उस महत्ता को भगवान की ही माननी चाहिए; क्योंकि वह महत्ता एक क्षण भी स्थायी रूप से न टिकने वाले संसार की नहीं हो सकती। |
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