श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् । अर्थ- छल करने वालों में जूआ और तेजस्वियों में तेज मैं हूँ। जीतने वालों की विजय, निश्चय करने वालों का निश्चय और सात्त्विक मनुष्यों का सात्त्विक भाव मैं हूँ। व्याख्या- ‘द्यूतं छलयतामस्मि’- छल करके दूसरों के राज्य, वैभव, धन, संपत्ति आदि का (सर्वस्व का) अपहरण करने की विशेष सामर्थ्य रखने वाली जो विद्या है, उसको जूआ कहते हैं। इस जूए को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। शंका- यहाँ भगवान ने छल करने वालों में जूए को अपनी विभूति बताया है तो फिर इसके खेलने में क्या दोष है? अगर दोष नहीं है तो फिर शास्त्रों ने इसका निषेध क्यों किया है। समाधान- ‘ऐसा करो और ऐसा मत करो’- यह शास्त्रों का विधि-निषेध कहलाता है। ऐसे विधि-निषेध का वर्णन यहाँ नहीं है। यहाँ तो विभूतियों का वर्णन है। ‘मैं आपका चिन्तन कहाँ-कहाँ करूँ?’- अर्जुन के इस प्रश्न के अनुसार भगवान ने विभूतियों के रूप में अपने चिन्तन की बात ही बतायी है अर्थात भगवान का चिन्तन सुमगता से हो जाए, इसका उपाय विभूतियों के रूप में बताया है। अतः जिस समुदाय में मनुष्य रहता है, उस समुदाय में जहाँ दृष्टि पड़े, वहाँ संसार को न देखकर भगवान को ही देखें; क्योंकि भगवान कहते हैं कि यह संपूर्ण जगत मेरे से व्याप्त है अर्थात इस जगत में मैं ही व्याप्त हूँ, परिपूर्ण हूँ।[1] जैसे किसी साधक का पहले जूआ खेलने का व्यसन रहा हो और अब वह भगवान के भजन में लगा है। उसको कभी जूआ याद आ जाए तो उस जूए का चिन्तन छोड़ने के लिए वह उसमें भगवान का चिन्तन करे कि इस जूए के खेल में हार-जीत की जो विशेषता है, वह भगवान की ही है। इस प्रकार जूए में भगवान को देखने से जूए का चिन्तन तो छूट जाएगा और भगवान का चिन्तन होने लगेगा। ऐसे ही किसी दूसरे को जूआ खेलते देखा और उसमें हार-जीत को देखा, तो हराने और जिताने की शक्ति को जूए की न मानकर भगवान की ही माने। कारण कि खेल तो समाप्त हो रहा है और समाप्त हो जाएगा, पर परमात्मा उसमें निरंतर रहते हैं और रहेंगे। इस प्रकार जूआ आदि को विभूति कहने का तात्पर्य भगवान के चिन्तन में है।[2] जीव स्वयं साक्षात परमात्मा का अंश है, पर इसने भूल से असत् शरीर-संसार के साथ अपना संबंध मान लिया है। अगर यह संसार में दिखने वाली महत्ता, विशेषता, शोभा आदि को परमात्मा की ही मानकर परमात्मा का चिन्तन करेगा तो यह परमात्मा की तरफ जाएगा अर्थात इसका उद्धार हो जाएगा[3]; और अगर महत्ता, विशेषता, शोभा आदि को संसारर की मानकर संसार का चिन्तन करेगा तो यह संसार की तरफ जाएगा अर्थात इसका पतन हो जाएगा।[4] इसलिए परमात्मा का चिन्तन करते हुए परमात्मा को तत्त्व से जानने के उद्देश्य से ही इन विभूतियों का वर्णन किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 9:4
- ↑ किसी ग्रंथ के किसी अंश पर शंका हो, तो उस ग्रंथ का आदि से अंत तक अध्ययन करके उसमें वक्ता के उद्देश्य को, लक्ष्य को और आशय को समझने से उस शंका का समाधान हो जाता है।
- ↑ गीता 8:14
- ↑ गीता 2:62-63
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