श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पञ्चम अध्याय संबंध- जिस स्थिति में सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है, उस स्थिति की प्राप्ति के लिये आगे के श्लोक में साधन बताते हैं। तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः । व्याख्या- [परमात्मतत्त्व का अनुभव करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं- एक तो विवेक के द्वारा असत् का त्याग करने पर सत् में स्वरूप स्थिति स्वतः हो जाती है और दूसरा, सत् का चिंतन करते-करते सत् की प्राप्ति हो जाती है। चिंतन से सत् की ही प्राप्ति होती है। असत् की प्राप्ति कर्मों से होती है, चिंतन से नहीं। उत्पत्ति विनाशशील वस्तु कर्म से मिलती है और नित्य परिपूर्ण तत्त्व चिंतन से मिलता है। चिंतन से परमात्मा कैसे प्राप्त होते हैं- इसकी विधि इस श्लोक में बताते हैं।] ‘तद्बुद्धयः’- निश्चय करने वाली वृत्ति का नाम ‘बुद्धि’ है। साधक पहले बुद्धि से यह निश्चय करे कि सर्वत्र एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है। संसार के उत्पन्न होने से पहले भी परमात्मा थे और संसार के नष्ट होने के बाद भी परमात्मा रहेंगे। बीच में भी संसार का जो प्रवाह चल रहा है, उसमें भी परमात्मा वैसे-के-वैसे ही हैं। इस प्रकार परमात्मा की सत्ता[2] में अटल निश्चय होना ही ‘तद्बुद्धयः’ पद का तात्पर्य है। ‘तदात्मानः’- यहाँ ‘आत्मा’ शब्द मन का वाचक है। जब बुद्धि में एक परमात्मतत्त्व का निश्चय हो जाता है, तब मन से स्वतः स्वाभाविक परमात्मा का ही चिंतन होने लगता है। सब क्रियाएँ करते समय यह चिंतन अखंड रहता है कि सत्ता रूप से सब जगह एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है। चिंतन में संसार की सत्ता आती ही नहीं। ‘तन्निष्ठाः’- जब साधक के मन और बुद्धि परमात्मा में लग जाते हैं, तब वह हर समय परमात्मा में अपनी[3] स्वतः स्वाभाविक स्थिति का अनुभव करता है। जब तक मन-बुद्धि परमात्मा में नहीं लगते अर्थात मनसे परमात्मा का चिंतन और बुद्धि से परमात्मा का निश्चय नहीं होता, तब तक परमात्मा में अपनी स्वाभाविक स्थिति होते हुए भी उसका अनुभव नहीं होता। ‘तत्परायणाः’- परमात्मा से अलग अपनी सत्ता न रहना ही परमात्मा के परायण होना है। परमात्मा में अपनी स्थिति का अनुभव करन से अपनी सत्ता परमात्मा की सत्ता में लीन हो जाती है और स्वयं परमात्म स्वरूप हो जाता है। जब तक साधक और साधन की एकता नहीं होती, तब तक साधन छूटता रहता है, अखंड नहीं रहता। जब साधकपन अर्थात अहंभाव मिट जाता है, तब साधन साध्यरूप ही हो जाता है; क्योंकि वास्तव में साधन और साध्य दोनों में नित्य एकता है। ‘ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः’- ज्ञान अर्थात सत्-असत् के विवेक की वास्तविक जागृति होने पर असत् की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। असत् के संबंध से ही पाप पुण्य रूप कल्मष होता है, जिनसे मनुष्य बँधता है। असत् से सर्वथा संबंध विच्छेद होने पर पाप पुण्य मिट जाते हैं। ‘गच्छन्त्यपुनरावृत्तिम्’- असत् का संग ही पुनरावृत्ति[4] का कारण है- ‘कारणं गुणसंगोऽस्य सद्सद्योनिजन्मसु’।[5] असत् का संग सर्वथा मिटने पर पुनरावृत्ति का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। जो वस्तु एकदेशीय होती है, उसकी का आना-जाना होता है। जो वस्तु सर्वत्र परिपूर्ण है, वह कहाँ से आये और कहाँ जाय? परमात्मा संपूर्ण देश, काल, वस्तु, परिस्थिति आदि में एकरस परिपूर्ण रहते हैं। उनका कहीं आना-जाना नहीं होता। इसलिये जो महापुरुष परमात्म स्वरूप ही हो जाते हैं, उनका भी कहीं आना-जाना नहीं होता। श्रुति कहती हैं- ‘न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति’[6] ‘उसके प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता; वह ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है।’ न उसके कहलाने वाले शरीर को लेकर ही यह कहा जाता है कि उसका पुनर्जन्म नहीं होता। वास्तव में यहाँ ‘गच्छन्ति’ पद का तात्पर्य है- वास्तविक बोध होना, जिसके होते ही नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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