श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्रुते । अर्थ- जो ज्ञेय है, उस (परमात्मतत्त्व) को मैं अच्छी तरह से कहूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है। वह (ज्ञेय-तत्त्व) अनादि और परमब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है। व्याख्या- ‘ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि’- भगवान यहाँ ज्ञेय तत्त्व के वर्णन का उपक्रम करते हुए प्रतिज्ञा करते हैं कि जिसकी प्राप्ति के लिए ही मनुष्य शरीर मिला है, जिसका वर्णन उपनिषदों, शास्त्रों और ग्रंथों में किया गया है, उस प्रापणीय ज्ञेय तत्त्व का मैं अच्छी तरह से वर्णन करूँगा। ‘ज्ञेयम्’ (अवश्य जानने योग्य) कहने का तात्पर्य है कि संसार में जितने भी विषय, पदार्थ, विद्याएं, कलाएँ आदि हैं, वे सभी अवश्य जानने योग्य नहीं है। अवश्य जानने योग्य तो एक परमात्मा ही है। कारण कि सांसारिक विषयों को कितना ही जान लें, तो भी जानना बाकी ही रहेगा। सांसारिक विषयों की जानकारी से जन्म-मरण भी नहीं मिटेगा। परंतु परमात्मा को तत्त्व से ठीक जान लेने पर जानना बाकी नहीं रहेगा और जन्म-मरण भी मिट जाएगा। अतः संसार में परमात्मा के सिवाय जानने योग्य दूसरा कोई है ही नहीं। ‘यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते’- उस ज्ञेय तत्त्व को जानने पर अमरता का अनुभव हो जाता है अर्थात स्वतः सिद्ध तत्त्व की प्राप्ति हो जाती है, जिसकी प्राप्ति होने पर जानना, करना, पाना आदि कुछ भी बाकी नहीं रहता। वास्तव में स्वयं पहले से ही अमर है, पर उसने मरणशील शरीरादि के साथ एकता करके अपने को जन्मने-मरने वाला मान लिया है। परमात्मतत्त्व को जानने से यह भूल मिट जाती है और वह अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है अर्थात अमरता का अनुभव कर लेता है। ‘अनादिमत्’- उससे यावन्मात्र संसार उत्पन्न होता है, उसी में रहता है और अंत में उसी में लीन हो जाता है। परंतु वह आदि, मध्य और अंत में ज्यों-का-त्यों विद्यमान रहता है। अतः वह ‘अनादि’ कहा जाता है। ‘परं बह्म’- ‘ब्रह्म’ प्रकृति को भी कहते हैं, वेद को भी कहते हैं, पर ‘परम ब्रह्म’ तो एक परमात्मा ही है। जिससे बढ़कर दूसरा कोई व्यापक, निर्विकार, सदा रहने वाला तत्त्व नहीं है, वह ‘परम ब्रह्म’ कहा जाता है। ‘न सत्तन्नासदुच्यते’- उस तत्त्व को ‘सत्’ भी नहीं कह सकते और ‘असत्’ भी नहीं कह सकते। कारण कि असत् की भावना (सत्ता) के बिना उस परमात्मतत्त्व में सत् शब्द का प्रयोग नहीं होता, इसलिए उसको ‘सत्’ नहीं कह सकते; और उस परमात्मतत्त्व का कभी अभाव नहीं होता, इसलिए उसको ‘असत्’ भी नहीं कह सकते। तात्पर्य है कि उस परमात्मतत्त्व में सत्-असत् शब्दों की अर्थात वाणी की प्रवृत्ति होती ही नहीं- ऐसा वह करण-निरपेक्ष तत्त्व है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस शलोक में भगवान् ने ‘प्रवक्ष्यामि’ पद से ज्ञेय तत्त्व का वर्णन करने के लिए प्रतिज्ञा की है, ‘अमृतमश्रुते’ पद से उसे जानने का फल बताया है, ‘अनादिमत्’ पद से उसका लक्षण बताया है, ‘परं बह्मं’ पदों से उसका नाम बताया है, और ‘न सत्तन्नासदुच्यते’ पदों से उसका वर्णन किया है।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज