श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
शरीर तो बदल गया, पर मैं वहीं हूँ, जो कि बचपन में था- यह सबके अनुभव की बात है। अतः शरीर के साथ अपना संबंध वास्तविक न होकर केवल माना हुआ है- ऐसा निश्चय होने पर ही वास्तविक साधन आरंभ होता है। साधक की बुद्धि जितने अंश में परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य को धारणा करती है, उतने ही अंश में विवेक की जागृति तथा संसार से वैराग्य हो जाता है। भगवान ने विवेक और वैराग्य को पुष्ट करने के लिए ज्ञान के आवश्यक साधनों का वर्णन किया है। जब मनुष्य का उद्देश्य परमात्मप्राप्ति करना ही हो जाता है, तब दुर्गुणों एवं दुराचारों की जड़ कट जाती है, चाहे साधक को इसका अनुभव हो या न हो! जैसे वृक्ष की जड़ कटने पर भी बड़ी टहनी पर लगे हुए पत्ते कुछ दिन तक हरे दीखते हैं; किंतु वास्तव उन पत्तों के हरेपन की भी जड़ कट चुकी है। इसलिए कुछ दिनों के बाद कटी हुई टहनी के पत्तों का हरपन मिट जाता है। ऐसे ही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति का दृढ़ उद्देश्य होते ही दुर्गुण-दुराचार मिट जाते हैं। यद्यपि साधक को आरंभ में ऐसा अनुभव नहीं होता और उसको अपने में अवगुण दीखते हैं, तथापि कुछ समय के बाद उनका सर्वथा अभाव दीखने लग जाता है। साधन करते समय कभी-कभी साधक को अपने में दुर्गुण दिखायी दे सकते हैं। परंतु वास्तव में साधन में लगने से पहले उसमें जो दुर्गुण रहे थे, वे ही जाते हुए दिखाई देते हैं। यह नियम है कि दरवाजे से आने वाले और जाने वाले- दोनों ही दिखायी देते हैं। यदि साधन करते समय अपने में दुर्गुण बढ़ते हुए दीखते हों, तो समझना चाहिए कि दुर्गुण आ रहे हैं। परंतु यदि अपने में दुर्गुण कम होते हुए दीखते हों, तो समझना चाहिए कि दुर्गुण जा रहे हैं। ऐसी अवस्था में साधक को निराश नहीं होना चाहिए, प्रत्युत अपने उद्देश्य पर दृढ़ रहकर तत्परतापूर्वक साधन में लगे रहना चाहिए। इस प्रकार साधन में लगे रहने से दुर्गुण-दुराचारों का सर्वथा अभाव हो जाता है। संबंध- पूर्वोक्त ज्ञान (साधन-समुदाय) के द्वारा जिसको जाना जाता है, उस साध्य-तत्त्व का अब ‘ज्ञेय’ नाम से वर्णन आरंभ करते हैं। |
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