श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । अर्थ- अध्यात्मज्ञान में नित्य-निरन्तर रहना, तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को सब जगह देखना- यह (पूर्वोक्त साधन-समुदाय) तो ज्ञान है; और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है- ऐसा कहा गया है। व्याख्या- ‘अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम्’- संपूर्ण शास्त्रों का तात्पर्य मनुष्य को परमात्मा की तरफ लगाने में, परमात्मप्राप्ति कराने में है- ऐसा निश्चय करने के बाद परमात्मतत्त्व जितना समझ में आया है, उसका मनन करे। युक्ति-प्रयुक्ति से देखा जाए तो परमात्मतत्त्व भावरूप से पहले भी था, अभी भी है और आगे भी रहेगा। परंतु संसार पहले भी नहीं था और आगे भी नहीं रहेगा तथा अभी भी प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है। संसार की तो उत्पत्ति और विनाश होता है, पर उसका जो आधार, प्रकाशक है, वह परमात्मतत्त्व नित्य-निरंतर रहता है। उस परमात्मतत्त्व के सिवाय संसार की स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं। परमात्मा की सत्ता से ही संसार सत्ता वाला दीखता है। इस प्रकार संसार की स्वतंत्र सत्ता के अभाव का और परमात्मा की सत्ता का नित्य-निरंतर मनन करते रहना ‘अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम्’ है। उपाय- आध्यात्मिक ग्रंथों का पठन-पाठन, तत्त्वज्ञ महापुरुषों से तत्त्वज्ञान-विषयक श्रवण और प्रश्नोत्तर करना। ‘तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्’- तत्त्वज्ञान का अर्थ है- परमात्मा। उस परमात्मा का ही सब जगह दर्शन करना, उसका ही सब जगह अनुभव करना ‘तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्’ है। वह परमात्मा सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि में ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है। एकान्त में अथवा व्यवहार में, सब समय साधक की दृष्टि, उसका लक्ष्य केवल उस परमात्मा पर ही रहे। एक परमात्मा के सिवाय उसको दूसरी कोई सत्ता दीखे ही नहीं। सब जगह, सब समय समभाव से परिपूर्ण परमात्मा को ही देखने का उसका स्वभाव बन जाए- यही ‘तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्’ है। इसके सिद्ध होने पर साधक को परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है। ‘एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा’- ‘अमानित्वम्’ से लेकर ‘तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्’ तक ये जो बीस साधन कहे गये हैं, ये सभी साधन देहाभिमान मिटाने वाले होने से और परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में सहायक होने से ‘ज्ञान’ नाम से कहे गये हैं। इन साधनों से विपरीत मानित्व, दम्भित्व, हिंसा आदि जितने भी दोष हैं, वे सभी देहाभिमान बढ़ाने वाले होने से और परमात्मतत्त्व से विमुख करने वाले होने से ‘अज्ञान’ नाम से कहे गये हैं। विशेष बात यदि साधक में इतना तीव्र विवेक जाग्रत हो जाए कि वह शरीर से माने हुए संबंध का त्याग कर सके, तो उसमें यह साधन-समुदाय स्वतः प्रकट हो जाता है। फिर उसको इन साधनों का अलग-अलग अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। विनाशी शरीर को अपने अविनाशी स्वरूप से अलग देखना मूल साधन है। अतः सभी साधकों को चाहिए कि वे शरीर को अपने से अलग अनुभव करें, जो कि वास्तव में अलग ही हैं! |
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