श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
दूसरी बात, सत्-असत् का निर्णय बुद्धि करती है और ऐसा कहना भी वहीं होता है, जहाँ वह मन, वाणी और बुद्धि का विषय का होता है। परंतु ज्ञेय तत्त्व मन, वाणी और बुद्धि से सर्वथा अतीत है; अतः उसकी सत्-असत् संज्ञा नहीं हो सकती। संबंध- पूर्वश्लोक में ‘वह तत्त्व न सत् कहा जा सकता है, न असत्’- ऐसा कहकर ज्ञेय तत्त्व का निर्गुण-निराकार रूप से वर्णन किया। अब आगे के श्लोक में उसी ज्ञेय तत्त्व का सगुण-निराकार रूप से वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा ।।
सहज प्रकासरूप भगवाना ।। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ।। (मानस 1।116।3)
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