महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
17.इन्द्रप्रस्थ
राज्याभिषेक के उपरान्त युधिष्ठिर को आशीर्वाद देते हुए धृतराष्ट्र ने कहा, "बेटा युधिष्ठिर! भैया पाण्डु ने इस राज्य को अपने बाहुबल से बहुत विस्तृत किया था। मेरी कामना यही है कि उन्हीं के समान तुम भी यशस्वी बनो और सुख से रहो। तुम्हारे पिता पाण्डु मेरा कहा कभी नहीं टालते थे। प्रेम भाव से उसे मानते थे। तुमसे भी मुझे वही आशा है। मेरे अपने बेटे बड़े दुरात्मा हैं। एक साथ रहने से संभव है तुम दोनों के बीच वैर बढ़े। इस कारण मेरी सलाह है कि तुम खांडवप्रस्थ को अपनी राजधानी बना लेना और वहीं से राज करना। इससे तुममें और मेरे बेटों में शत्रुता होने की संभावना न रहेगी। खांडवप्रस्थ वह नगरी है जो पुरु, नहुष एवं ययाति- जैसे हमारे पूर्वजों की राजधानी रही है। हमारे वंश की पुरानी राजधानी खांडवप्रस्थ को फिर से बसाने का श्रेय तुम्हीं को प्राप्त हो।" धृतराष्ट्र के मीठे वचन मानकर पाण्डवों ने खांडवप्रस्थ के भग्नावशेषों पर, जो कि उस समय तक निर्जन वन बन चुका था, निपुण शिल्पकारों से एक नए नगर का निर्माण कराया। सुन्दर भवनों, अभेद्य दुर्गों आदि से सुशोभित उस नगर का नाम इन्द्रप्रस्थ रक्खा गया। इन्द्रप्रस्थ की शान एवं सुन्दरता ऐसी हो गई कि सारा संसार उसकी प्रशंसा करते न थकता था। अपनी इस राजधानी में द्रौपदी और माता कुन्ती के साथ पाँचों पाण्डव तेईस बरस तक सुखपूर्वक जीवन बिताते हुए न्यायपूर्वक राज्य करते रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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