महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
17.इन्द्रप्रस्थ
धर्मात्मा एवं नीतिज्ञ भीष्म ने कहा- "बेटा! वीर पांडवों के साथ संधि करके आधा राज्य उन्हें दे देना ही उचित है। सारे देश के प्रजाजन यह चाहते हैं और खानदान की इज्जत रखने का भी यही उपाय है। लाख के भवन के जल जाने के बारे में नगर के लोग तरह-तरह की बातें कर रहे हैं। सब लोग तुम्हें ही दोषी ठहरा रहे हैं। यदि पांडवों को वापस बुला लो और उन्हें आधा राज्य दे दो, तो कुल का कलंक मिटा सकोगे। मेरी तो यही सलाह है।" आचार्य द्रोण ने भी यही सलाह दी। उन्होंने कहा, "राजन, कुशल राजदूतों को पांचाल देश भेजकर संधि की शर्तें तय करा लें। फिर पांडवों को यहाँ बुलाकर बड़े भाई युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करके आधा राज्य उन्हें दे दीजिये। मुझे भी यही उचित लगता है।" अंग-नरेश कर्ण भी इसी अवसर पर धृतराष्ट्र के दरबार में उपस्थित था। पांडवों को आधा राज्य देने की सलाह उसे बिल्कुल अच्छी नहीं लगी। दुर्योधन के प्रति कर्ण के हृदय में अपार स्नेह था। इस कारण द्रोणाचार्य की सलाह सुनकर उसके क्रोध की सीमा न रही। धृतराष्ट्र से बोला, "राजन! मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि आपके धन से धनी और आपके सम्मान से प्रतिष्ठित आचार्य द्रोण भी आपको ऐसी कुमंत्रणा देते हैं। राजन! शासकों का कर्तव्य है कि मंत्रणा देने वालों की नीयत को पहले परख लें तब फिर उनकी मंत्रणा पर ध्यान दें। केवल शब्दों को ही महत्त्व न देना चाहिये।" कर्ण की इन बातों से द्रोणाचार्य क्रोधित हो उठे, गरजकर बोले- "दुष्ट कर्ण! तुम राजा को गलत रास्ता बता रहे हो। तुमने शिष्टता से बातें करना भी नहीं सीखा। यह निश्चित है कि यदि राजा धृतराष्ट्र ने मेरी तथा भीष्म पितामह की सलाह न मानी और तुम जैसों की सलाह पर चले, तो फिर कौरवों का नाश ही होने वाला है। इसके बाद धृतराष्ट्र ने धर्मात्मा विदुर से सलाह ली। विदुर ने कहा- "हमारे कुल के नायक भीष्म तथा आचार्य द्रोण ने जो बताया है वही श्रेयस्कर है। वे बड़े बुद्धिमान हैं, सदा हमारी भलाई करते आये हैं, सो उनकी बातों के अनुसार ही कार्य होना चाहिये। जैसे दुर्योधन आदि आपके बेटे हैं, वैसे ही पाण्डव भी आपके हैं। उनकी बुराई सोचने की सलाह जो भी दे, उसे अपने कुल का शत्रु समझियेगा। कम-से-कम अपनी भलाई के लिये भी आपको पांडवों से न्यायोचित व्यवहार करना चाहिये। पांचाल नरेश द्रुपद, उनके दोनों शक्तिमान पुत्र, यदुवंश के श्रीकृष्ण और उनके साथी आदि सब उनके पक्ष में हैं। इस हालत में पांडवों को युद्ध में हराना संभव भी नहीं हो सकता। कर्ण की सलाह किसी काम की नहीं, उस पर ध्यान न देना ही ठीक है। यों भी हम पर दोष लगा हुआ है कि हमने पाण्डवो को लाख के भवन में ठहराकर उनको मरवा डालने का प्रयत्न किया। इस दाग को धो डालना ही ठीक होगा। यह जानकर कि पाण्डव अभी जीवित हैं, हमारी सारी प्रजा आनन्द मना रही है और पाण्डवों के दर्शन के लिये उत्सुक हो रही है। दुर्योधन की बात न सुनिये। कर्ण और शकुनि अभी कल के बच्चे हैं। राजनीति से अनभिज्ञ हैं। उनकी युक्तियाँ कभी कारगर न हो सकेंगी। इसलिये राजन, भीष्म के आदेशानुसार ही काम कीजिये।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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