महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
15.बकासुर-वध
गुफा के नजदीक पहुँचकर भीमसेन ने देखा कि रास्ते में जहाँ-तहाँ हड्डियां पड़ी हुई हैं। खून के चिह्न, मनुष्यों के व जानवरों के बाल व खाल इधर-उधर पड़े हुए हैं। कहीं टूटे हुए हाथ-पांव तो कहीं धड़ पड़े हुए हैं। चारों तरफ बड़ी बदबू आ रही है। ऊपर गिद्ध और चीलें मंडरा रही है। इस वीभत्स दृश्य की तनिक भी परवाह न करते हुए भीमसेन ने गाड़ी वहीं खड़ी कर दी और मन ही मन कहा- "ऐसा स्वादिष्ट भोजन फिर थोड़े ही मिलेगा। राक्षस के साथ लड़ने के बाद खाना ठीक नहीं रहेगा; क्योंकि मार-धाड़ में ये सभी चीजें बिखरकर नष्ट हो जायेंगी और किसी काम की भी नहीं रहेंगी। फिर इसके अलावा यह भी बात है कि राक्षस को मारने पर छूत लग जायेगी और ऐसी हालत में तो खा भी न सकूंगा; इसलिये यही ठीक है कि पहले इन चीजों को खतम कर लिया जाये।" उधर राक्षस मारे भूख के तड़प रहा था। जब बहुत देर हो गई तो बड़े क्रोध के साथ गुफा के बाहर आया। देखता क्या है कि एक मोटा-सा मनुष्य बड़े आराम से बैठा भोजन कर रहा है। यह देखकर बकासुर की आंखें क्रोध से एकदम लाल हो उठीं। इतने में भीमसेन की भी निगाह उस पर पड़ी। उसने हंसते हुए उसका नाम लेकर पुकारा। भीमसेन की यह ढिठाई देखकर राक्षस गुस्से में भर गया और तेजी से भीमसेन पर झपटा। उसका शरीर बड़ा लम्बा-चौड़ा था। सिर के तथा मूंछों के बाल आग की ज्वाला की तरह लाल थे। मुंह इतना चौड़ा था कि वह उसके एक कान से लेकर दूसरे कान तक फैला हुआ था। स्वरूप इतना भयानक कि देखते ही रोंगटे खड़े हो जाते थे। भीमसेन ने बकासुर को अपनी ओर आते देखा तो उसकी तरफ पीठ फेर ली और उसकी कुछ भी परवाह न करके खाने में ही लगा रहा। राक्षस ने भीमसेन के पास आकर उसकी पीठ पर जोर का घूंसा मारा; परन्तु भीमसेन को मानो कुछ हुआ ही नहीं। वह सामने पड़ी चीजों को खाने में ही लगा रहा। ख़ाली हाथों काम न बनते देखकर राक्षस ने एक बड़ा-सा पेड़ जड़ से उखाड़ लिया और उसे भीमसेन पर दे मारा। पर भीमसेन ने बायें हाथ पर उसे रोक लिया और दाहिने हाथ से अपना खाना जारी रक्खा। जब मांस तथा अन्न खत्म हो गया, तो घड़ा-भर दही पीकर उसने मुंह पोंछ लिया और तब मुड़कर राक्षस को देखा। भीम का इस प्रकार निबटना था कि दोनों में भयानक मुठभेड़ हो गई। भीमसेन ने बकासुर को ठोकरें मारकर गिरा दिया और कहा- "दुष्ट राक्षस! जरा विश्राम तो करने दे।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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