महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
15.बकासुर-वध
इस देश का राजा एक क्षत्रिय है जो 'वेत्रकीय' नाम के महल में रहता है। लेकिन वह इतना निकम्मा है कि प्रजा को राक्षस के अत्याचार से बचा नहीं रहा है। इससे बकासुर नगर के लोगों को जहाँ देखता है, वही मारकर खा जाता है। क्या स्त्रियाँ, क्या बूढ़े, क्या बच्चे-कोई भी इस राक्षस के अत्याचार से नहीं बच सके। इस हत्याकाण्ड से घबराकर नगर के लोगों ने मिलकर उससे बड़ी अनुनय-विनय की कि कोई-न-कोई नियम बना लें।
"जिस किसी ने भी इस मुसीबत से देश को छुड़ाने का प्रयत्न किया, उसको तथा उसके बाल-बच्चों तक को इस राक्षस ने तत्काल ही मारकर खा लिया। इस कारण किसी की हिम्मत भी नहीं पड़ती कि इसके विरुद्ध कुछ करे। देवी, हमारे ऊपर जो राजा बना बैठा है उसमें तो इतनी भी शक्ति नहीं कि राक्षस के पंजे से हमें छुडाये। जिस देश का राजा शक्ति सम्पन्न न हो, उस देश की प्रजा की संतान ही न होनी चाहिये। सुखी एवं शिष्ट गृहस्थ-जीवन न्यायशील व शक्तिशाली राजा के अधीर ही संभव है। परन्तु जब खुद राजा ही कमज़ोर हो, देश की रक्षा करने योग्य न हो, तो न ब्याह करना चाहिये, न धन ही कमाना चाहिये। हमारी कष्ट-कथा यह है कि इस सप्ताह में उस राक्षस के खाने के लिये आदमी और भोजन भेजने की हमारी बारी है। किसी गरीब आदमी को खरीद कर भेजना चाहूँ तो उसके लिए मेरे पास इतना धन भी नहीं है। स्त्री-बच्चों को अकेले भेजना मुझसे नहीं हो सकता। अब तो मैंने यही सोचा है कि सबको साथ लेकर ही राक्षस के पास चला जाऊंगा। हम सब एक साथ ही उस पापी के पेट में चले जायेंगे, यही अच्छा होगा। आपने पूछा सो आपको बता दिया। इस कष्ट को दूर करना तो आपके बस में भी नहीं है। देवी! आप हमारी अतिथि हैं। हमारे घर में आश्रय लिये हुए हैं। आपके बेटे को मौत के मुंह में मैं भेजूं, यह कहाँ का न्याय है? मुझसे यह नहीं हो सकता।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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