महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
14.पांडवों की रक्षा
युधिष्ठिर और अर्जुन को दोनों हाथों से पकड़ लिया और वह वायुदेव का पुत्र भीम उस जंगली रास्ते में उन्मत्त हाथी के समान झाड़-झंखाड़ और पेड़-पौधों को इधर-उधर हटाता व रौंदता हुआ तेजी से चलने लगा। जब वे सब गंगा के किनारे पहुँचे तो वहाँ विदुर की भेजी हुई एक नाव मिली। युधिष्ठिर ने मल्लाह से सांकेतिक प्रश्न करके जांच लिया कि वह मित्र है और विश्वास करने योग्य है। तब नाव में बैठकर रातों-रात उन्होंने गंगा पार की और फिर अगले दिन शाम होने तक चलते ही रहे ताकि किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँच जायें। सूरज डूब गया और रात हो चली। चारों तरफ अंधेरा छा गया। वन-प्रदेश जंगली जानवरों की भयानक अवाज से गूंजने लगा। कुन्ती और पांडव एक तो थकावट के मारे चूर हो रहे थे, ऊपर से प्यास और नींद भी उन्हें सताने लगी। चक्कर-सा आने लगा। एक पग भी आगे बढ़ना असंभव हो गया। भीम के सिवाय और सब भाई वहीं जमीन पर बैठ गये। कुन्ती से तो बैठा भी नहीं गया। दीनभाव से बोली- "मैं तो प्यास से मरी जा रही हूँ। अब मुझसे बिलकुल नहीं चला जाता। धृतराष्ट्र के बेटे चाहें तो भले ही मुझे यहाँ से उठा ले जायें, मैं तो यहीं पड़ी रहूंगी।" यह कहकर कुन्ती वहाँ जमीन पर गिरकर बेहोश हो गई। माता और भाइयों का यह हाल देखकर क्षोभ के मारे भीमसेन का हृदय गरम हो उठा। वह उस भयानक जंगल में बेधड़क घुस पड़ा और इधर-उधर घूम-घामकर उसने एक जलाशय का पता लगा ही लिया। उसने कमल के पत्तों के दोनों में पानी भर लिया और अपना दुपट्टा भिगोकर उसमें भी पानी लाकर माता व भाइयों की प्यास बुझाई। पानी पीकर चारों भाई और माता कुन्ती ऐसे सोये कि उन्हें अपनी सुध-बुध तक न रही। अकेला भीमसेन मन-ही-मन कुछ सोचता हुआ चिंतित भाव से बैठा रहा। उसके निर्दोष मन में यह विचार उठा- "देखो, इस जंगल में कितने ही पेड़-पौधे हैं। वे सब एक-दूसरे की रक्षा करते हुए कितने मजे से लहलहा रहे हैं! जब पेड़-पौधे तक हिल-मिलकर प्रेम के साथ रह सकते हैं तो दुरात्मा धृतराष्ट्र और दुर्योधन मनुष्य होकर हमसे इतना वैर-भाव क्यों रखते हैं!" पाँचों भाई माता कुन्ती को साथ लिए अनेक विघ्न-बाधाओं का सामना करते और बड़ी मुसीबतें झेलते हुए उस जंगली रास्ते में आगे बढ़ते ही चले गये। वे कभी माता को उठाकर तेज चलते, कभी थके-मांदे बैठ जाते। कभी एक-दूसरे से होड़ लगाकर रास्ता पार करते। चलते-चलते रास्ते में एक दिन महर्षि व्यास से उनकी भेंट हुई। सबने उनको दण्डवत प्रणाम किया। महर्षि ने उन्हें धीरज बंधाया और सदुपदेशों से उनको सांत्वना दी। कुन्ती जब रो-रोकर अपना दुखड़ा सुनाने लगी तो व्यास जी ने उन्हें समझाते हुए कहा- "कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं जो हमेशा धर्म के ही काम करता रहे। ऐसा भी कोई नहीं जो पाप-ही-पाप करता हो। संसार में हरेक मनुष्य पाप भी करता हैं और धर्म-कर्म भी। अतः जब किसी पर कोई विपत्ति पड़े तो उसे अपने ही किये का फल मानकर सह लेना चाहिए। अपने-अपने कर्म का फल हरेक को भोगना ही पड़ता हैं, यह समझकर दुःखी न हो। धीरज धरकर हिम्मत से सब सह लो।" कुंन्ती को इस प्रकार समझाने के बाद व्यास जी ने पांडवों को सलाह दी कि वे ब्राह्मण ब्रह्मचारियों का वेश धरकर एकचक्रा नगरी में जाकर रहें। उनकी सलाह के अनुसार पांडवों ने मृगचर्म, वल्कल आदि धारण कर लिए और ब्राह्मणों के वेश में एकचक्रा नगरी जाकर एक ब्राह्मण के घर में रहने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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