महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
14.पांडवों की रक्षा
आग देखकर सारे नगर के लोग वहाँ इकट्ठे हो गये और पांडवों के भवन को भयंकर आग की भेंट होते देखकर हाहाकार मचाने लगे। कौरवों के अत्याचार से जनता क्षुब्ध हो उठी और तरह-तरह से कौरवों की निंदा करने लगी। पांडवों को मारने के लिए पापी दुर्योधन और उसके साथी कैसे षड्यंत्र रच रहे हैं, कैसी चालें चल रहे हैं, यह सोचकर लोग क्रोध में अनाप-शनाप बकने लगे, हाय-तौबा मचाने लगे और उनके देखते-देखते सारा भवन जलकर राख हो गया। पुरोचन का मकान और स्वयं पुरोचन भी आग की भेंट हो गया। वारणावत के लोगों ने तुरंत ही हस्तिनापुर में खबर पहुँचा दी कि पांडव जिस भवन में ठहराये गये थे, वह जलकर राख हो गया और भवन में कोई भी जीता नहीं बचा। यह खबर पाकर बूढ़े धृतराष्ट्र को शोक तो जरूर हुआ, परन्तु मन-ही-मन उनको आनन्द भी हो रहा था कि उनके बेटों के दुश्मन खत्म हो गये। उनके मन की इस दोरुखी हालत का भगवान व्यास ने बड़ी सुन्दरता से वर्णन किया है। वह लिखते हैं, "गरमी के दिनों में जैसे गहरे तालाब का पानी सतह पर गरम होता रहता है; किन्तु गहराई में ठंडा रहता है, ठीक उसी तरह धृतराष्ट्र के मन में शोक भी था और आनन्द भी।" धृतराष्ट्र और उनके बेटों ने पांडवों की मृत्यु पर बड़ा शोक मनाया। सब गहने उतार दिये। एक मामूली कपड़ा पहनकर वे गंगा-किनारे गये और पांडवों तथा कुन्ती को जलांजलि दी। फिर सब मिलकर बड़े जोर-जोर से रोते और विलाप करते घर लौटे। सब लोग जी भरकर रोये; परन्तु दार्शनिक विदुर ने, जीना-मरना तो प्रारब्ध की बात होती है, यह विचारकर शोक को मन ही में दबा लिया। अधिक शोक-प्रदर्शन न किया। इसके अलावा विदुर को यह भी पक्का विश्वास था कि पांडव लाख के भवन से बचकर निकल गये होंगे। इस कारण, यद्यपि दिखावे के लिए दूसरों से मिलकर वह भी कुछ रोये, फिर भी मन में यही अन्दाजा लगाते रहे कि अभी पांडव किस रास्ते और कितनी दूर गये होंगे और कहाँ पहुँचे होंगे, इत्यादि। पितामह भीष्म तो मानो शोक के सागर में मग्न थे। पर उनको विदुर ने धीरज बंधाया और पांडवों के बचाव के लिए किये गये अपने सारे प्रबंध का हाल बताकर उन स्नेह पूर्ण पितामह को चिन्ता मुक्त कर दिया। लाख के घर को जलता छोड़कर पांचों भाई माता कुन्ती के साथ बच निकले और जंगल में पहुँच गये। जंगल में पहुँचने पर भीमसेन ने देखा कि रात-भर जगे होने तथा चिन्ता और भय से पीड़ित होने के कारण चारों भाई बहुत थके हुए हैं। माता कुन्ती की दशा तो बड़ी ही दयनीय थी। बेचारी थककर चूर हो गई थी। सो महाबली भीम ने माता को उठाकर अपने कंधे पर बिठा लिया और नकुल एवं सहदेव को कमर पर ले लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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