महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
83.अभिमंत्रित कवच
अर्जुन ने कहा- "सखे कृष्ण" मेरा ख्याल है कि इसने आचार्य द्रोण से अभिमंत्रित कवच पा लिया है और उसी को यह पहने हुए है। आचार्य ने इस कवच का भेद मुझे भी बताया था। उन्होंने जरूर ही वह कवच इसके शरीर पर पहनाया होगा। स्वयं दुर्योधन इसे नहीं पहन सकता। दूसरे के द्वारा पहनाये हुए कवच को दुर्योधन ठीक उसी तरह ओढ़े खड़ा है जैसे बोझा लदा हुआ बैल। आप अभी मेरी कुशलता की बानगी देखिये।" यह कहते-कहते अर्जुन ने ऐसी तेजी से बाण चलाए कि पलक मारते दुर्योधन के घोड़े और सारथी मारे गये और रथ चूर-चूर हो गया। थोड़ी ही देर में अर्जुन ने दुर्योधन का धनुष काट डाला और चमड़े के दस्ताने फाड़ दिये। दुर्योधन के शरीर का वह भाग जो कवच से ढका नहीं था, अर्जुन के बाणों से बुरी तरह भिद गया। इस प्रकार अर्जुन ने दुर्योधन को बेहद परेशान किया। अर्जुन के बाणों से दुर्योधन के हाथ, पांव, नाखून, उंगलियां तक बिंध गये और अन्त में दुर्योधन को हार माननी ही पड़ी। दुर्योधन समर-भूमि में पीठ दिखाकर भाग खड़ा हुआ। यह देख श्रीकृष्ण ने अपना पांचजन्य शंख बजाया और बड़े जोर से विजयनाद किया। जयद्रथ की रक्षा पर नियुक्त वीरों ने जब यह सुना तो उनके दिल एकबारगी दहल उठे और भूरिश्रवा, कर्ण, वृषसेन, शल्य, अश्वत्थामा, जयद्रथ आदि आठों महारथी अर्जुन के मुकाबले पर आ गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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