महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
79.अभिमन्यु
युधिष्ठिर ने इस वीर बालक को बुलाकर कहा- "बेटा! द्रोणाचार्य हमें बहुत तंग कर रहे हैं। यदि हमें हारना पड़ा तो अर्जुन हमारी निन्दा करेगा। द्रोण के रचे चक्रव्यूह को तोड़ना हमारे और किसी वीर से हो नहीं सकता। अकेले तुम्हीं ऐसे हो, जिसके लिये द्रोण के बनाये इस व्यूह को तोड़ना संभव है। द्रोण की सेना पर आक्रमण करने को तैयार हो?" यह सुन अभिमन्यु बोला- "महाराज, इस चक्रव्यूह में प्रवेश करना तो मुझे आता है, पर प्रवेश करने के बाद कहीं कोई संकट आ गया तो व्यूह से बाहर निकलना मुझे याद नहीं है। युधिष्ठिर ने कहा- "बेटा! व्यूह को तोड़कर एक बार तुम भीतर प्रवेश कर लो; फिर तो जिधर से तुम आगे बढ़ोगे, उधर से ही हम तुम्हारे पीछे-पीछे चले आवेंगे और तुम्हारी मदद को तैयार रहेंगे।" युधिष्ठिर की बातों का समर्थन करते हुए भीमसेन ने कहा- "तुम्हारे ठीक पीछे-पीछे मैं चलूंगा। धृष्टद्युम्न, सात्यकि आदि वीर भी अपनी-अपनी सेनाओं के साथ तुम्हारा अनुकरण करेंगे। एक बार तुमने व्यूह को तोड़ दिया तो फिर यह निश्चित समझना कि हम सब कौरव सेना को तहस-नहस कर डालेंगे।" यह सब सुनकर बालक अभिमन्यु को अपने मामा श्रीकृष्ण और पिता अर्जुन की वीरता का स्मरण हो आया। बड़े उत्साह के साथ वह बोला- "मैं अपनी वीरता और पराक्रम से मामा श्रीकृष्ण और पिता जी को अवश्य प्रसन्न करूंगा।" युधिष्ठिर ने आशीर्वाद देते हुए कहा- "तुम्हारा बल हमेशा बढ़ता रहेगा। तुम यशस्वी होओगे। "सुमित्र! वह देखो! द्रोणाचार्य के रथ की ध्वजा। उसी ओर रथ चलाओ, जल्दी करो।" अपने सारथी को उत्साहित करते हुए अभिमन्यु ने कहा और सारथी ने भी उसी ओर रथ चलाया। रथ की गति से संतोष न पाकर अभिमन्यु ने सारथी को और तेजी से रथ चलाने का उकसाया। उत्साह में आकर वह बार-बार कहने लगा- "तेज चलाओ, और तेज!" इस पर सारथी नम्र भाव से बोला- "भैया! महाराज युधिष्ठिर ने आप पर यह बड़ी भारी जिम्मेदारी डाली है। मेरे विचार से आप थोड़ी देर और सोच-विचार कर लें और उसके बाद व्यूह में प्रवेश करने की तय करें। यह आप ध्यान में रक्खें कि द्रोणाचार्य अस्त्र-विद्या के महान आचार्य हैं और महाबली हैं। आप तो अवस्था में भी अभी निरे बालक ही हैं।" यह सुन अभिमन्यु हंस पड़ा और बोला- "सुमित्र! तुमको यह याद रखना चाहिए कि मेरे मामा श्रीकृष्ण हैं और पिता हैं महारथी अर्जुन! भय और शंका का भूत मेरे पास नहीं फटक सकता। शत्रु-पक्ष के सभी वीरों की शक्ति मेरी शक्ति का सोलहवां हिस्सा भी नहीं हो सकती। इनको देखकर मैं सोच-विचार में पड़ूं। तुम फ़िक्र मत करो। चलाओ रथ तेजी से द्रोणाचार्य की सेना की ओर। खूब तेजी से रथ चलाओ।" अभिमन्यु की आज्ञा मानकर सारथी ने उधर रथ बढ़ा दिया। तीन-तीन वर्ष के सुंदर और वेगमान घोड़े उस सुनहरे रथ को बड़े वेग से खींचते हुए कौरव-सेना की ओर दौड़े। कौरव-सेना में हलचल मच गई- "अरे अभिमन्यु आया और उसके पीछे-पीछे पांडव-वीर भी चले आ रहे हैं।" कर्णिकार वृक्ष की ध्वजा फहराते हुए अभिमन्यु के रथ को अपनी ओर वेग से आते हुए देखकर कौरव-सेना के दिल एकबारगी दहल उठे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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