महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
78.शूर भगदत्त
सुप्रतीक ने अपने दांतों से दशार्ण के हाथी की पसलियां तोड़ दीं। दशार्ण का हाथी चक्कर खाकर गिर पड़ा। इसी बीच समय पाकर भीमसेन सुप्रतीक के पैरों के बीच में से निकल आया। इधर युधिष्ठिर की भेजी कुमुक आ पहुँची थी और वृद्ध भगदत्त को चारों तरफ से पांडव वीरों ने घेर लिया। बाणों के वार से उसका हाथी और वह स्वयं दोनों बुरी तरह घायल हो गये, परंतु फिर भी भगदत्त इससे विचलित नहीं हुआ। दावानल की भाँति बूढ़े वीर भगदत्त का कलेजा जल रहा था। घेरे हुए शत्रु वृन्द की बिलकुल परवाह न करके उसने सात्यकि के रथ की ओर ही हाथी दौड़ा दिया। हाथी ने सात्यकि के रथ को उठाकर हवा में फेंक दिया। सात्यकि फुरती से जमीन पर कूद पड़ा वरना उसका बचना कठिन हो जाता। उसका सारथी बड़ा कुशल था। उसने आकाश में फेंके गये रथ और घोड़ों को बड़ी कुशलता से बचा लिया और फिर से रथ को उठाकर ठीक-ठाक कर लिया और सात्यकि के नजदीक ले आया। भगदत्त के हाथी ने पांडव-सेना को बहुत तंग किया। वह निधड़क होकर सेना के अंदर घुसकर सैनिकों को उठा-उठाकर फेंकने लगा और उसने चारों ओर तबाही मचा दी। इस हमले से सैनिकों को बड़ी घबराहट हुई। हाथी पर शान से खड़ा राजा भगदत्त ठीक उसी तरह पांडव-सेना के वीरों को मौत के घाट उतार रहा था मानो देवराज इन्द्र अपने ऐरावत पर खड़े असुरों का वध कर रहे हों। इस बीच भीमसेन फिर से रथ पर सवार होकर सुप्रतीक पर हमला करने लगा; परंतु मतवाले हाथी ने उसके रथ के घोड़ों की ओर सूंड बढ़ाकर जोर से ऐसी फुंकारें मारीं कि घोड़े घबराकर भाग खड़े हुए। उधर दूसरी ओर दूर पर अर्जुन संशप्तकों से लड़ रहा था। उसने देखा कि जहाँ पांडव सेना थी, वहाँ आकाश तक धूल उड़ रही है और हाथी की चिंघाड़े भी सुनाई दे रही हैं। यह देखकर उसने ताड़ लिया कि जरूर कोई न कोई अनर्थ हो रहा होगा। वह श्रीकृष्ण से बोला– "मधुसूदन, सुनिए तो! भगदत्त के लड़ाकू हाथी सुप्रतीक की चिंघाड़ सुनाई दे रही है। लड़ाकू हाथी को चलाने वालों में भगदत्त का सानी संसार में कोई नहीं है। मुझे डर है कहीं वह हमारी सेना को तितर-बितर करके हरा न दे। हमें शीघ्र ही उधर चलना चाहिए। इन संशप्तकों को जितना हरा चुके हैं, अभी तो उतना ही काफी है। इनको यहीं छोड़कर उधर चलना जरूरी मालूम देता है, जहाँ द्रोणाचार्य युधिष्ठिर से लड़ रहे हैं।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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