महाभारत कथा-चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
77.बारहवां दिन
अर्जुन ने कहा- "आपकी रक्षा पंचालराज-पुत्र सत्यजित करेंगे। जब तक वह जीवित रहेंगे तब तक आप पर किसी तरह की आंच नहीं आ सकती।" और सत्यजित को युधिष्ठिर का रक्षक तैनात करके अर्जुन संशप्तकों की ओर ऐसे लपका जैसे भूखा शेर शिकार पर लपकता हो। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा- "कृष्ण! देखिए वे त्रिगर्त-लोग खड़े हैं। प्राणों के भय के कारण तो उन्हें रोना ही चाहिए था, किंतु व्रत के नशे में मस्त ये बड़े खुश हो रहे हैं। स्वर्ग की प्रतीक्षा करते हुए वे आनन्द के मारे अपने आपे में नहीं है।" कहते-कहते अर्जुन शत्रु-सेना के पास जा पहुँचा। युद्ध का बारहवां दिन था; बहुत ही भयानक लड़ाई हो रही थी। अर्जुन ने त्रिगर्तों पर ऐसा आक्रमण किया कि त्रिगर्त-सेना के वीर विचलित होने लगे। इस पर घबराये हुए सैनिकों का उत्साह बढ़ाते हुए राजा सुशर्म सिंह की भाँति गरज उठा। बोला– "शूरो! याद रक्खो! क्षत्रियों की भरी सभा में तुम लोगों ने शपथ खाकर व्रत धारण किया है। घोर प्रतिज्ञा करने के बाद भय-विह्वल होना तुम्हें शोभा नहीं देता। लोग तुम्हारी हंसी उड़ायेंगे। डरो नहीं! आगे बढ़ो और प्राणों की बलि चढ़ा दो।" यह सुन सभी वीरों ने एक-दूसरे को प्रोत्साहित करके शंख बजाते हुए फिर भयानक युद्ध शुरू कर दिया। उनका यह युद्ध देखकर श्रीकृष्ण से अर्जुन ने कहा– "ऋषिकेश! जब तक इनके तन में प्राण रहेंगे, ये मैदान से हटेंगे नहीं। अत: अब हमें भी झिझकना नहीं चाहिए, आप रथ चलाइये।" मधुसूदन ने रथ चलाया और अपने सारथ्य की कुशलता का अद्भुत परिचय दिया। श्रीकृष्ण द्वारा संचालित वह उस समय ऐसे शोभित हुआ जैसे देवासुर-संग्राम के समय इंद्र का रथ शोभित हो रहा था। अर्जुन के गांडीव ने भी अपनी पूरी चतुराई का परिचय दिया। त्रिगर्तों को एक ही समय में सौ-सौ अर्जुन दिखाई देने लगे और अर्जुन के द्वारा घायल वीर ऐसे दिखाई देने लगे जैसे हजारों फूलों से लदे प्लास के पेड़। घोर संग्राम होने लगा। एक बार तो अर्जुन का रथ त्रिगर्तों के बाणों की बौछार से मानो अंधकार में विलीन हो गया। लेकिन अर्जुन ने त्रिगर्तों द्वारा मारे गये बाणों के घेरे में ही गांडीव तानकर ऐसे बाण मारे कि जिनसे शत्रुओं की बाण-वर्षा का घेरा हवा में उड़ गया। उस समय युद्ध-भूमि का दृश्य ऐसा भयानक प्रतीत हुआ मानो प्रलय के समय रुद्र की नृत्य-भूमि हो। सारे मैदान पर जहाँ तक दृष्टि पहुँचती थी, बिना सिर के धड़, टूटे हाथ-पैर आदि के ढेर पड़े दिखाई देते थे। अर्जुन को संशप्तकों से लड़ते देख द्रोणाचार्य ने अपनी सेना को आज्ञा दी कि पांडवों की सेना के व्यूह के उस स्थान पर आक्रमण करें जहाँ युधिष्ठिर हों। युधिष्ठिर ने देखा की द्रोणाचार्य के सेनापतित्व में एक भारी सेना उनकी ओर बढ़ी चली आ रही है। वह धृष्टद्युम्न को सचेत करते हुए बोले– "वह देखो! ब्राह्मण-वीर आचार्य द्रोण मुझे पकड़ने के लिये आ रहे हैं। सतर्कता के साथ सेना की देखभाल करना।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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