महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
66.तीसरा दिन
फिर दुर्योधन को पहले से ही मालूम था कि भीष्म मेरी चालों को पसंद नहीं करते। यही नहीं, घृणा की दृष्टि से देखते हैं। इसी कारण खिसिया कर उसने भीष्म को खूब जली-कटी सुनाई। दुर्योधन की इन मूर्खता-भरी बातों पर भीष्म को जरा हंसी-सी आई। वह बोले – "बेटा! मैंने अपनी बात तुमसे छिपाई कहाँ है? स्पष्ट रूप से तुमको जो सलाह मैंने दी उसकी ओर तुमने जरा भी ध्यान नहीं दिया। कितनी बार तुम्हें समझाकर कहा कि पांडवों पर विजय तुम कभी नहीं पा सकोगे। पर तुमने मेरी चेतावनी पर ध्यान ही कब दिया और कर्ण के बहकावे में आकर युद्ध छेड़ दिया। यह मेरी तो भूल नहीं थी। फिर यदि मैं तुम्हारा साथ दे रहा हूँ तो वह केवल कर्तव्य से प्रेरित होकर। यद्यपि मैं बूढा हो गया हूँ, पर लड़ाई में मैं पीछे हटनेवाला नहीं हूँ। तुम अपने मन से यह खयाल हटा दो कि मैं पांडवों से प्रेम के कारण उन्हें हराने में कोई कसर उठा रखूंगा।" इतना कहकर भीष्म ने फिर से युद्ध शुरू कर दिया। इधर पांडवों की सेना में आनंद छाया हुआ था। दिन के पहले भाग में उन्होंने कौरव -सेना पर जिस प्रकार हमला करके उसे तितर-बितर कर दिया था, उसे इस बात की आशा न थी कि भीष्म इस बिखरी सेना को फिर से इकट्ठा करके हम पर टूट पड़ेंगे। पर उनका वह विचार गलत साबित हुआ। भीष्म ने ऐसा भयानक हमला किया कि पांडव-सेना के पांव उखड़ गये। ऐसा प्रतीत होने लगा मानो भीष्म ने माया से अपने को एक से अनेक बना लिया हो। जिधर देखो, उधर भीष्म-ही-भीष्म दिखाई देते थे। दुर्योधन की जली-कटी बातों ने उनके क्रोध को इतना भड़का दिया कि वह ऐसे दिखाई दिये, जैसे कोई जलता हुआ अंगार इधर-से-उधर घूमकर प्रलय मचा रहा हो। जो भी भीष्म के सामने आया, भस्म हो गया, जैसे पतंगा आग में गिरकर भस्म हो जाता है। भीष्म ने ऐसा प्रलयंकारी युद्ध किया कि पांडव-सेना भय-विह्वल हो उठी और तितर-बितर होकर भागने लगी। श्रीकृष्ण, अर्जुन और शिखण्डी के प्रयत्नों के बावजूद सेना अनुशासन न रख सकी। यह सब देखकर श्रीकृष्ण बोले– "अर्जुन! अब तैयार हो जाओ। आज तुम्हारी परीक्षा का समय आ गया। तुमने शपथ खाई थी न, कि भीष्म, द्रोण आदि गुरुजनों एवं मित्रों तथा संबंधियों का संहार करूंगा? अब समय आ गया कि अपनी शपथ को पूरा कर दिखाओ। हमारी सेना इस समय भय-विचलित हो रही है। उसके पांव उखड़ रहे हैं। यही समय है कि भीष्म पर जोर का आक्रमण करके अपनी सेना का उत्साह बंधाओ और उसे नष्ट हो जाने से बचाओ।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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