महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
66.तीसरा दिन
इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर सारथी जल्दी से रथ को युद्ध-भूमि से हटाकर छावनी की ओर ले गया, किंतु उसने जो सोचा था, हुआ उससे उल्टा ही। कौरव-सेना का अनुशासन स्थिर रखने के उद्देश्य से उसने जो कार्य किया था, वही उसके अनुशासन के टूटने और सेना में खलबली मच जाने का कारण बन गया। कौरव-सैनिकों ने समझा कि दुर्योधन युद्ध-क्षेत्र से भाग खड़े हुए इससे सारी कौरव-सेना भयभीत हो उठी। सैनिकों में भगदड़ मच गई। इस प्रकार सेना का अनुशासन भंग हो जाने पर व्यूह-रचना भी नष्ट हो गई। घबराये हुए और भय के मारे भागने वाले सैनिकों का पीछा करके भीमसेन ने उन्हें बाण मार-मारकर बहुत परेशान किया। तितर-बितर हो रही कौरव-सेना को सेनापति भीष्म एवं आचार्य द्रोण ने किसी तरह इकट्ठा किया और फिर से व्यवस्थित रूप से व्यूह-रचना की। इसी बीच दुर्योधन की मूर्च्छा दूर हुई तो उसने भी मैदान में आकर परिस्थिति संभालने में भीष्म और द्रोण का हाथ बंटाया। जब जरा शांति हुई और व्यवस्था बंधी तो वह भीष्म के पास गया और पितामह भीष्म को जली-कटी सुनाने लगा। बोला– "आप और आचार्य जी क्या करते हैं, जो अपनी सेना को ठीक से संभालकर नहीं रख सकते और जब उस पर हमला होता है तो उसे तितर-बितर होते देखकर भी कुछ करते-धरते नहीं। आपके सेनापतित्व में सेना का यह हाल हो, यह हमारे और आपके लिये बड़े अपमान की बात है। मालूम होता है कि आप पर इसका कोई असर नहीं हो रहा है। इसका तो यही अर्थ है कि आप पांडवों को चाहते हैं। यदि यह सही है तो पहले ही से आपने क्यों नहीं कह दिया कि मैं पांडवों, सात्यकि, धृष्टद्युम्न आदि के विरुद्ध नहीं लड़ सकता। मुझे स्पष्ट क्यों नहीं बता दिया कि तेरे शत्रु ही मेरे प्रिय हैं? यदि यह बात न हो और आप और द्रोणाचार्य मन लगाकर पांडवों से लड़े तो उस सेना का हराना आप दोनों के बायें हाथ का खेल है। अब समय है कि आप दोनों स्पष्ट रूप से मुझे बता दें अगर मेरा साथ छोड़ देना है तो बिना किसी झिझक के कह दें और पांडवों के पक्ष में चले जायें। मैं अकेला ही उनसे लड़ लूंगा।" युद्ध में बुरी तरह से हार जाने से दुर्योधन घबरा गया था।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज