महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
47.प्रतिज्ञा पूर्ति
जब कर्ण ने आचार्य की यों चुटकी ली तो कृपाचार्य के भानजे अश्वत्थामा से न रहा गया। वह बोला- "कर्ण! हम गायें लेकर हस्तिनापुर तो जा नहीं पहुँचे हैं। किया तुमने कुछ नहीं और कोरी डींगें मारने में समय गंवा रहे हो। हम भले ही क्षत्रिय न हों, वेद और शास्त्र रटने वाले ही हों; पर राजाओं को जुए में हराकर उनका राज्य जीतने की बात किसी भी शास्त्र में हमने नहीं देखी है, न पढ़ी है। फिर जो लोग युद्ध जीतकर भी राज्य प्राप्त करते हैं, वे भी तो अपने मुंह अपनी तारीफ नहीं करते। तुम लोगों ने कौन सा भारी पहाड़ उठा लिया जो ऐसी शेखी बघार रहे हो? अग्नि चुपचाप सब चीजों को पकाती है, सूर्य चुपचाप प्रकाश फैलाता है और पृथ्वी अखिल चराचर का भार वहन करती है, फिर भी वे सब अपनी प्रशंसा आप नहीं करते। तब जिन क्षत्रिय वीरों ने जुआ खेलकर राज्य जीत लिया है, उन्होंने कौन सा ऐसा पराक्रम किया है जो अपने मुंह अपनी प्रशंसा करते फूला नहीं समाते? शिकारी जैसे जाल फैलाकर चिड़ियों को फंसाता है, उसी प्रकार जिन लोगों ने कुचक्र का जाल फैलाकर पांडवों का राज्य छीन लिया है, वे कम से कम अपने मुंह अपनी प्रशंसा तो न करें। अरे कर्ण! दुर्योधन! तुम लोगों ने अभी तक किस लड़ाई में पांडवों को हराया है? एक वस्त्र पहनी हुई द्रौपदी को सभा में खींच लानेवाले वीरों! तुम लोगों ने किस युद्ध में जीता था? लेकिन सावधान हो जाओ। आज यहाँ कोई चौपड़ का खेल नहीं होने वाला कि पासा फेंका और राज हथिया लिया। आज तो अर्जुन के साथ लड़ाई में दो दो हाथ करने हैं। अर्जुन का गांडीव चौपड़ की गोटें नहीं फेंकेगा, बल्कि पैने बाणों की बौछार करेगा। यहाँ शकुनि की कुचालें काम न देंगी। यह खेल नहीं-युद्ध है।" इस प्रकार कौरव सेना के वीर आपस में ही वाद विवाद तथा झगड़ा करने लगे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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