महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
43.अनुचर का काम
यह सुनकर युधिष्ठिर मुग्ध हो गये। द्रौपदी की सहनशीलता की प्रशंसा करते हुए बोले- "धन्य हो कल्याणी! वीर वंश की बेटी हो न तुम! तुम्हारी ये मंगलकारिणी बातें तुम्हारे कुल के ही अनुरुप हैं।" पांडवों के इस प्रकार निश्चय कर चुकने पर धौम्य मुनि उनको आशीर्वाद व उपदेश देते हुए बोले- "किसी राजा के यहाँ नौकरी करते हुए बड़ी सावधानी से काम लेना चाहिए। राजा के पूछने पर ही कुछ सलाह देनी चाहिए। उसके बिना पूछे आप ही मंत्रणा देने लगना राजसेवक के लिए उचित नहीं। समय पाकर राजा की स्तुति भी करनी चाहिए। मामूली-से-मामूली काम के लिए भी राजा की अनुमति ले लेनी चाहिए। राजा मानो मनुष्य के रुप में आग है। उसके न तो बहुत नजदीक जाना चाहिए, न बहुत ही दूर हट जाना चाहिए। मतलब यह कि राजा से न तो अधिक हेल-मेल रखना चाहिए, न उसकी लापरवाही ही करनी चाहिए। राजसेवक चाहे कितने ही विश्वस्त क्यों न हो, कितने ही अधिकार उसे क्यों न प्राप्त हों, उसको चाहिए कि सदा पदच्युत होने के लिए तैयार रहे और दरवाजे की ओर देखता रहे। राजाओं पर भरोसा रखना नासमझी है। यह समझकर कि अब तो राजस्नेह प्राप्त हो गया है, उसके आसन पर बैठना या उसके वाहनों पर चढ़ना अनुचित है। राजसेवक को चाहिए कि वह कभी सुस्ती न करे और अपने मन को काबू में रक्खे। राजा चाहे गौरवान्वित करे चाहे अपमानित, सेवक को चाहिए कि अपना हर्ष-विषाद प्रकट न होने दे।"
इस प्रकार राजसेवकों के ध्यान देने योग्य, कितनी ही बातें पाण्डवों को समझाने के बाद पुरोहित धौम्य ने उन्हें आशीर्वाद दिया और बोले- "पाण्डु पुत्रों! एक बरस इस भाँति विराट के यहाँ सेवक बनकर रहना और धीरज से काम लेना। इसके बाद तुम्हारा राज्य फिर तुम्हारे हाथ में आ जायेगा और तुम सुखपूर्वक राज करते हुए जीवन व्यतीत करोगे।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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