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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 89-153
महाभारत के विस्तृत प्रवाह में कई बार हमें इसी प्रकार कथाओं का संक्षिप्त रूप और फिर बृहत रूप मिलता है। अवश्य ही बृहत रूप[1] बाद में जोड़ा हुआ है। ग्रन्थकर्ताओं ने सचाई से कथा के दोनों रूपों को एक साथ रहने दिया है। अगस्त्य-उपाख्यान का यह बृहत संस्करण पंचरात्रों के प्रभाव का फल है, जैसा कि नारायण और उनके वाराह, नरसिंह, वामन आदि अवतारों के उल्लेख[2] से सूचित होता है। कृतयुग में कालेय नामक दानव थे, जिनका नेता वृत्र था। देवता जब उनसे त्रस्त हुए तब ब्रह्मा ने उपाय बताया कि दधीचि की अस्थियों का वज्र बनाकर वृत्र का वध करो। नारायण को आगे करके देवता सरस्वती तट पर दधीचि के आश्रम में पहुँचे और वरदान में उनकी अस्थियाँ प्राप्त कीं। सनातन विष्णु के स्वतेज से पुष्ट होकर इन्द्र ने उस वज्र से वृत्र का नाश किया। फिर कालेय असुर समुद्र की ओर चले गए और वहाँ से वसिष्ठ, च्यवन, भरद्वाज आदि के आश्रमो में छुटपुट हंमलों से ऋषियों का नाश करने लगे। देवता पुनः नारायण की शरण में आये। विष्णु ने कहा,‘‘समुद्र के आश्रय से सुरक्षित असुरों के नाश का एक ही उपाय है कि अगस्त्य समुद्र को सुखा डालें।’’ देवताओं की प्रार्थना से अगस्त्य ने इसे स्वीकार किया। मार्ग में उन्होंने विंध्य-पर्वत को गर्व-दलन किया। विंध्य पर्वत ने एक बार सूर्य को ललकारा कि जैसे तुम मेरु की प्रदक्षिणा करते हो वैसे ही मेरी भी करो। सूर्य ने कहा कि मैं कुछ नहीं करता, यह तो ब्रह्मा का विधान है। विंध्य ने क्रोध से ऊँचे उठकर सूर्य और चन्द्र का मार्ग रोकना चाहा। लोपामुद्रा के साथ अगस्त्य आये और बोले, ‘‘हमें दक्षिण की ओर जाने का मार्ग दो और हमारे आने तक प्रतीक्षा करना।’’ अगस्त्य दक्षिण से आज तक नहीं लौटे और विंध्याजल का बढ़ना भी रुक गया। समुद्र के पास पहुँच कर अगस्त्य ने असुर-विनाश के लिए समुद्र को सोख लिया। असुरों का नाश जो हो गया, किन्तु जलहीन समुद्र को पुनः भरने की चिन्ता देवताओं को हुई। विष्णु के साथ वह ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा ने कहा, ‘‘दीर्घकाल के बाद समुद्र फिर अपनी प्रकृति को प्राप्त करेगा। महाराज भगीरथ इसमें योग देंगे।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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