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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
परिशिष्ट
व्यास का मानवीय दृष्टिकोण
भारत के सांस्कृतिक दृष्टिकोण में इहलोक और मानवीय जीवन का उसी प्रकार महत्त्व है जिस प्रकार परलोक और देवों का। वेदव्यास ने इस सम्बन्ध में भारतीय मत का निचोड़ इस प्रकार कहा है- “इस मनुष्य लोक या जीवन में जो कल्याण है, उसे ही हम श्रेष्ठ या अच्छा समझते हैं।” इससे भी बढ़कर व्यास की वह उक्ति है जिसमें उन्होंने मानव केन्द्रिक मत का प्रतिपादन किया हैः नहि शप्तः प्रतिशपामि किञ्चिद् दमं द्वारं ह्यमृतस्येह वेद्मि। “कोई मुझ पर रोष करे, मैं उस पर रोष नहीं करता। सब प्रकार अपने आप को वश में रखना यही अमृत जीवन का द्वार है। यह अत्यन्त रहस्यमय ज्ञान तुमसे कहता हूँ कि मनुष्य से बढ़कर और कुछ भी नहीं है।” गांधीजी के शब्दों में- “मैन इज़ दी सुप्रीम कन्सीडरेशन।” अर्थात संसार में जितने प्रयन्त, योजनाएं और आकांक्षाएं हैं, सब का मध्यवर्ती बिन्दु मानव है, सब कुछ तभी सत्य है जब वह मानव के लिये हितकारी है। यही सबसे प्रमुख जीवन का सत्य है कि यहाँ देवों से भी बढ़कर मनुष्य हैं, मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। मानीवय जीवन में ज्ञान और कर्म दोनों का समन्वय है। उसकी पूर्णता के लिये इस लोक की समृद्धि उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार अध्यात्म-भावों की साधना और सिद्धि। इस जीवन के दो बड़े खम्भे और हैं- एक वार्ता या अर्थशास्त्र और दूसरा राजशास्त्र या दण्डनीति। नीति में स्वीकार किया गया है- “जितने उद्योग हैं सब की जड़ में पाव भर चावल का बल है।” इससे बढ़कर स्पष्ट और मुंहफट आर्थिक जीवन की और स्वीकृति क्या हो सकती है? वेदव्यास ने अपनी उसी उदार वाणी से कहा: तत्सर्वं वर्तते सम्यग्, यदा रक्षति भूमिपः।।[3] इस लोक के जीवन का ठाठ अर्थशास्त्र की नींव पर खड़ा है और वही सदा इसे चालू रखता है। वह अर्थशास्त्र तभी ठीक चलता है जब राज्य-व्यवस्था ठीक हो। जो राज्य की अभिलाषा करते हैं, उनका भी लोक की रक्षा के अतिरिक्त और कोई दूसरा धर्म नहीं है। जिस राष्ट्र में राज्य-व्यवस्था नहीं, उसे मरा हुआ समझो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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