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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 222-224
34. द्रौपदी-सत्यभामा-संवाद
स्कन्द की कथा जहाँ समाप्त होती है वहीं मार्कण्डेय समास्यापर्व अर्थात मार्कण्डेय के साथ पाण्डवों की धर्ममयी गोष्ठी का पर्व भी महाभारत में समाप्त माना गया है। इसके बाद प्रकरण पलट जाता है और पाण्डवों की निजी कथा एवं दुर्योधन के साथ उनकी नोक-झोंक का प्रसंग पुनः चलने लगता है। इन्हीं पर्वों का नाम घोष-यात्रा और द्रौपदी-हरण-पर्व है। इनमें वक्ता के रूप में मार्कण्डेय का नाम नहीं है। उसके बाद रामायण की कथा और सावित्री सत्यवान की कथा में, जो प्रतीत होता है बाद में वहाँ रखी गईं, पुनः मार्कण्डेय को वक्ता के रूप में कल्पित किया गया है। जिस समय मार्कण्डेय पर्व समाप्त हुआ, स्वाभाविकतया उसी समय कृष्ण और सत्यभामा ने भी पाण्डवों से विदा ली। यहीं पर वेद के महदुपाख्यानों से छुट्टी पाकर कथाकार की दृष्टि सिकुड़कर बैठी हुई द्रौपदी की ओर जाती है और उसने सत्यभामा द्रौपदी संवाद के रूप में द्रौपदी के चित्र को उज्ज्वलता प्रदान करने का सरस प्रयत्न किया है। उस विप्रमण्डली में द्रौपदी सत्यभामा भी आपस में कुरुकुल और यदुकुल की चित्र-विचित्र कथाएँ कह रही थीं। अग्निवंश और स्कन्द के उलझे हुए कथानकों के बीच में ये अपने मन को हलका कर रहीं थीं। अब विदा लेने के समय सात्राजिती सत्यभामा ने याज्ञसेनी द्रौपदी को अलग जाकर एक निजी चर्चा चलाई, जो स्त्रियों के ही योग्य है। उसने पूछा, ‘‘हे द्रौपदी, लोकपालों के समान वीर इन पाँच पाण्डवों से तुम कैसे निपटती हो? तुमने इन्हें कैसे अपने वश में कर रखा है कि वे सदा तुम्हारा मुँह देखते रहते हैं? क्या ऐसी कोई व्रतचर्या या तप है, या किसी मंत्र या जड़ी-बूटी के द्वारा उन्हें अपने वशीभूत कर रखा है?’’ द्रौपदी चट उसके मर्म को समझकर बोली, ‘‘हे कृष्ण की प्रिय पटरानी, तुम यह कैसा प्रश्न करती हो? तुम्हारे प्रश्न के पीछे एक संशय है जो तुम्हारे योग्य नहीं। अगर स्वप्न में भी भर्त्ता को यह पता चले कि उसकी स्त्री मंत्र और औषधि के द्वारा उसे वश में करना चाहती है तो तुरन्त उसके मन में ऐसा उद्वेग उत्पन्न हो जाय जैसे घर में आये हुए सांप से कोई डर जाता है। मंत्र और जड़ी-बूटी से क्या कोई पति कभी स्त्री के वश में हुआ है? कुलक्ष्छनी स्त्रियाँ तो जड़ी-बूटी खिलाकर पतियों में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न कर लेती हैं। उन पापियों की बात क्या कहूँ? मैं तुम्हें अपने मन की वह वृत्ति बताती हूँ जिससे महात्मा पाण्डवों से मैं व्यवहार करती हूँ। हे यशस्विनी, उसे सुनो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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