विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 168-353
86. अवान्तर दृष्टियां
इन मतों में प्रज्ञादर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान था। उद्योगपर्व में विदुरनीति प्रज्ञादर्शन का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। अन्यत्र भी उसका छिट-फुट वर्णन आया है। वस्तुतः ये सभी आचार प्राज्ञ या धीर, विचरण या कुशल के कहे जाते थे। अध्याय 173 में युधिष्ठिर ने स्पष्ट प्रश्न किया है कि बन्धु-बान्धव, कर्म, धन और प्रज्ञा इन सब में मनुष्य की प्रतिष्ठा का कारण क्या है? जैसा स्पष्ट प्रश्न है, वैसा ही उत्तर भी दिया गया हैः प्रज्ञा प्रतिष्ठा भूतानां प्रज्ञा लाभः परो मतः। प्रज्ञा से लोक में भूतों को सम्मान मिलता है। प्रज्ञा परम लाभ माना गया है। प्रज्ञा मोक्षदायिनी है। जब बलि का ऐश्वर्य जाता रहा, तब प्रज्ञा ने ही उसका साथ दिया। प्रह्लाद, नमुचि और मड्कि प्रज्ञा के दृष्टान्त माने जाते थे।[2] इससे सिद्ध है कि मंकि का नियतिवाद और प्रज्ञादर्शन इन दोनों में घनिष्ठ मेल था। जैसा हमने ऊपर कहा, प्रज्ञादर्शन का समझौता अन्य सब मतों से हो जाता है। प्रज्ञावादी आचार्य मनुष्य योनि को श्रेष्ठ मानते थे। अध्याय 173 से स्पष्ट है कि प्रज्ञावाद और योनिवाद इन दोनों का संयोग था। इन्द्र ने श्रृंगाल का रूप रखकर इसी मत का प्रतिपादन किया कि सब योनियों में मनुष्य योनि उत्तम है। इस मत का भी कोई विरोधी न था। योनिवाद का पृथक उल्लेख श्वेताश्वतर की सूची में किया गया है। सम्भवतः श्रृगालोवाद सुत्तन्त का भी यही अभिप्राय था। संखपाल जातक में नागराज संखपाल ने भी मनुष्य योनि की प्रशंसा की है और काम-भोगों को अशाश्वत बताया है। उसका यह व्रत आजगर व्रत से मिलता है। प्रज्ञादर्शन के अन्तर्गत जीवन में धनोपार्जन का महत्त्व माना जाता था। धन के बिना सांसारिक स्थिति नहीं बनती। अतः संसारिणी प्रज्ञा वही है, जो सत्य के मार्ग से उचित धन-संग्रह करे। इसी दृष्टि का आवश्यक परिणाम पाणिवाद मत था। देव के दी हुई दस अंगुलियां कर्म करने के लिए हैं। कहा हैः अहो सिद्धार्थता तेषां येषां सन्तीह पाणयः। इस लोक में जिनके हाथ हैं, उनके पास सफलता है। जैसे तुम धन चाहते हो, वैसे मैं उन्हें चाहता हूँ जो हाथ वाले हैं। पाणिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं है। बिना हाथ के तो चुभा हुआ कांटा भी नहीं निकाला जा सकता। प्रिय वस्तु का लाभ पाणिवाद का अंग था और इस दर्शन में तृष्णा का भी उचित स्थान था। ये आचार्य सुख-दुःख पर्याय को भी मानते थे। इन्द्रिय संयम, स्वाध्याय, अग्निहोत्र, दम, दान, स्पर्धिष्ठा या स्पर्धा का अभाव, यजन, याजन ये एक ही मत के विशेष गुण थे। इस मत के अन्तर्गत पाप योनि, पुण्य योनि, श्रृगाल योनि, मनुष्य योनि, विप्र योनि आदि अनेक योनियों के तारतम्य पर विचार किया जाता था। इनसे यहाँ न कोई सुख है न कोई दुःख है। जन्म से प्राप्त योनि दुःख-सुख का कारण है। मनुष्य धनी होकर राज्य चाहते हैं, राजा होकर देवत्व चाहते हैं और देवता बनकर इन्द्र का पद चाहने लगते हैं। सुख-दुःख जो आ पड़े उसे सहना चाहिए। उसकी शिकायत करना ठीक नहीं है। इन्द्रियों को ऐसे रोको जैसे पक्षी को पिजड़े में। इन्द्रियों को वश में करना ही सबसे बड़ी प्रज्ञा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 163।1
- ↑ प्रज्ञया प्रापितार्थो हि बलिरैश्वर्यसंक्षये।
प्रह्लादो नमुचिर्मकिस्तस्याः किं विद्यते परम्।।173। 3।। - ↑ 173। 10-11
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज