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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 284-294
39. कुण्डलाहरण
आरण्यकपर्व के अन्त में दो छोटे पर्व और शेष रहते हैं। पहले का नाम है कुण्डलाहरण पर्व और दूसरे का आरणेय पर्व। पहले में इन्द्र द्वारा कर्ण के कुण्डल मांगने की कथा है और प्रसंगोपात्त कुन्ती द्वारा सूर्य से देवों का आह्वान मंत्र प्राप्त करने और कौमार अवस्था में कर्ण को जन्म देने की कथा है। दूसरे में एक ब्राह्मण की अग्नि-मन्थन करने वाली अरणी के मृग द्वारा हरण के प्रसंग में यक्ष–युधिष्ठिर के मुख से प्रश्नोत्तर के रूप में अति विचित्र ब्रह्मोद्य चर्चा है। कुण्डलाहरण पर्व एक ऐसे वीर की गाथा है, जिसका अतिमानवी चरित अपना सादृश्य नहीं रखता। यदि पाँचों पाण्डवों को एक में मिला दिया जाय तो उस समष्टि की तुलना में अकेले कर्ण का प्रखर व्यक्तित्व बराबर ठहरता है। कर्ण पुरुषार्थ की प्रतिमा है। पर उच्च कुल में जन्म लेने की सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त न होने के कारण उन्हें भाग्य की थपेड़े सहनी पड़ी, पर उसका देवतुल्य व्यक्तित्व सदा ही ऊपर उभरता हुआ दिखाई देता है। जिस सूर्य के अंश से उसने जन्म लिया था, वह भी उसे सत्य-पथ से विचलित नहीं कर सका। भाग्य की दुकान पर ठगे हुए निरपराध सत्पुरुष के रूप में कर्ण की करुण मुद्रा महाभारत के धीर पाठक के सामने यदा-कदा आती है। इन्द्र ने लोमश के द्वारा युधिष्ठिर के पास सन्देश भेजा कि तुम जिस बात से सदा डरते रहते हो और किसी से कहते नहीं, मैं उस भय को दूर करूंगा। उस भय का कारण कर्ण ही था। जब पाण्डवों के प्रवास के बारह वर्ष पूरे होने को आये और इन्द्र ने यह सोचा कि अर्जुन का मार्ग निष्कण्टक करने के लिए कर्ण के अमृत-निर्मित कुण्डल मांग लावें, तो स्वप्न में सूर्य ब्राह्मण के वेश में कर्ण के पास पहुँचे और कहा, ‘‘हे महाबाहु, तुम्हारे कुण्डल लेने की इच्छा से इन्द्र कपटी ब्राह्मण के वेश में तुम्हारे पास आयेगा, किन्तु तुम देना नहीं। तुम्हारे कुण्डल और कवच अमृत से उत्पन्न हुए हैं। उनके कारण तुम अवध्य हो।’’ इस चेतावनी का कर्ण पर कोई प्रभाव न हुआ। कर्ण ने अपने यश की रक्षा के विषय में दृढ़ निश्चय प्रकट किया। सूर्य ने कर्ण को फिर बहुत भाँति से समझाया और कहा, ‘‘हे तात! यदि तुम इन्द्र को कुण्डल देना ही चाहो, तो तुम भी इन्द्र से शत्रुओं का नाश करने वाली एक अमोद्य शक्ति मांग लेना। मुझे तुमसे और भी कुछ दैवी गुह्य बात कहनी है, पर उसे तुम स्वयं समय पर जानोगे। जब तक तुम्हारे कानों मे कुण्डल हैं, स्वयं इन्द्र भी बाण बनकर आ जाय तो अर्जुन तुम्हें नहीं जीत सकता।’’ कर्ण ने जो स्वप्न देखा था वह उसके प्रत्यक्ष होने की प्रतीक्षा करने लगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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