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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 108-116
इसके अनन्तर युधिष्ठिर ने एक नया प्रकरण छेड़ा। अब तक वे राजधर्म के इतने विषय सुन चुके थे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्णों के धर्म, वृत्त (आचार-विचार) और जीविका के साधन तथा फल, राजाओं के वृत्त, देश, कोशसंचय, अमात्यों की गुणवृद्धि, प्रकृतियों का वर्धन, षाड्गुण्य, गुणों की कल्पना, सैनिक नीति, दुष्ट की पहचान, अदुष्ट का लक्षण, अपने से सम, हीन और अधिक के लक्षण और मध्यम की तुलना में वृद्धिशील की स्थिति, संग्रह या संचय के क्षीण हो जाने पर आवश्यक कर्तव्य और विजिगीषुवृत्त। यह राजधर्म का एक पक्ष था। अब गणराज्यों के संविधान और उनकी विशेषताओं के विषय में भी विचार करना आवश्यक था। राजधर्मरूपी रथ का यह दूसरा पहिया था। गणराज्यों में लोभ और क्रोध से फूट पड़ जाती है। एक कुटुम्ब के व्यक्ति लोभ के अधीन हो जाते हैं और दूसरों में क्रोध उत्पन्न हो जाता है। उनमें क्षयधर्म या नाश की प्रवृत्ति का उदय हो जाता है। तब वे आपस में गुप्तचर, मन्त्रबल, साम, दान और भेद का आश्रय लेकर एक दूसरे का क्षय करने लगते हैं। मेल रखने वाले गणों में भी फूट पड़ जाती है। फूट पड़ने से सब शत्रु के वश में चले जाते हैं। गणों के नाश का मुख्य कारण भेद या फूट है- भेदाद्गणाः विनश्यन्ति भिन्नाः सूपजपाः परैः।[1] फूट पड़ने से शत्रु उन्हें अलग टुकड़ों में बांट देते हैं। इसलिए गणों को चाहिए कि सदा अपना संगठन ठोस बनावें। संघात (मेल-जोल) की नीति से ही गण अर्थ प्राप्त करते हैं। जब उनमें ठोस मेल होता है, तो बाहर के लोग भी उनसे मेल चाहते हैं। उन्हें चाहिए कि ज्ञानवृद्धों की प्रशंसा और सेवा करें। इस प्रकार फूट से विनिवृत्त होकर वे सर्वथा सुखी होते हैं। उत्तम गुणों की यह विशेषता है कि वे शास्त्र के अनुसार धर्मिष्ठ व्यवहारों की स्थापना करते हैं। जैसा चाहिए वैसे उनके व्यवहार से गणों की निरन्तर वृद्धि होती है। पुत्र और भाइयों का निग्रह करने से, सदा विनय का पालन करने से और जो विनीत हैं उनका सम्मान करने से, गणों की वृद्धि होती है। गुप्तचर और मन्त्र के सम्पर्क-विधान से, कोश का संग्रह करने से, गणों की सब ओर से वृद्धि होती है। जो गण अपने यहाँ प्राज्ञ, शूर, महाधनुर्धारी एवं दृढ़ पौरुष से युक्त व्यक्तियों का सम्मान करते हैं, वे वृद्धि को प्राप्त होते हैं। द्रव्यवन्त, शूर-वीर, शस्त्र और शास्त्र के जानने वाले और कठिनाइयों में भी असंमूढ़ रहने वाले सदस्य लोग गणों का उद्धार करते हैं। क्रोध, भेद, भय, दण्ड, नीचे घसीटना, इन दोषों से गण शत्रु के वश में पड़ जाते हैं। इसलिए सर्वप्रथम जो गणमुख्य या संघ के प्रधान नेता है, उनका सम्मान करना चाहिए। लोक की समृद्धिपूर्ण जीविका उन्हीं के अधीन है। गण में जो मुख्य नेता हैं, उन्हें ही गुप्तचरों का हाल जानना चाहिए, और गुप्त मन्त्र भी उन्हीं तक सीमित रहना चाहिए। सम्पूर्ण गण को मन्त्र का ज्ञान होना ठीक नहीं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 108।14
- ↑ मन्त्रगुप्तिः प्रधानेषु चारश्चामित्रकर्षन। न गणाः कृत्स्नशो मन्त्रं श्रोतुमर्हन्ति भारत।। (108।24)
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