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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 99-107
इन अध्यायों में विजिगीषु या देश-विजय की इच्छा वाले राजा का वृत्त बताया गया है। उसका सार यह है कि विजय के मूल में धर्म होना चाहिए, अधर्म नहीं। इसी को धर्म-विजय कहते हैं, या ऐसे राजा को धर्म-विजयी कहते हैं। अधर्म-विजयी राजा अध्रुव और अस्वर्ग्य होता है। विजीगीषु राजा को चाहिए की धर्म का लोप और मर्यादा का भेदन न करे। अधर्म द्वारा प्राप्त विजय से कोई लाभ नहीं है। कहा जाता है कि राजा प्रवर्धन ने बिना भूमि को जीते ही शत्रु के पुर की अमृत औषधियों को प्राप्त कर लिया था। दिवोदास ने अग्निहोत्र के अग्निशेष हविर्भाजन का आहरण किया था, इस कारण वह निन्दा को प्राप्त हुआ। नाभाग अम्बरीष ने राज्य और राष्ट्र को दक्षिणा में दान दे दिया और श्रोतियों एवं तपस्वियों के धन की रक्षा की। इस प्रकार विजिगीषु राजाओं के ऊंचे-नीचे चरित हैं। अतः माया या कपट से विजय की इच्छा न करे। विजिगीषु की संग्राम में मृत्यु
युधिष्ठिर के कथनानुसार विजिगीषु के लिए संग्राम में मृत्यु प्रशंसनीय है। पर क्षात्रधर्म से बढ़कर और कोई पाप नहीं था, क्योंकि अभियान और युद्ध से राजा बहुतों की हिंसा करता था। भीष्म ने कहा, “पापियों के निग्रह और साधुओं के अनुग्रह से, यज्ञ एवं दान से, राजा पवित्र और निर्मल हो जाते हैं। विजयार्थी राजा जिन प्रजाओं का उपरोध करते हैं, पुनः विजय के बाद उन्हें बढ़ाते हैं। दान, यज्ञ और तपोबल से पापियों का निरोध करते और अनुग्रह से प्रजाओं को बढ़ाते हैं। जैसे दांय चलाने वाला धान्य और घासफूंस (कक्ष), दोनों की हिंसा करता है, पर उससे धान्य का नाश नहीं होता है, ऐसे ही शस्त्रों के द्वारा विजय करने वाला भूतों की रक्षा करके अपने उस पाप से मुक्त हो जाता है। जो लोगों को धन की हानि, वध और क्लेश से बचाता है और शत्रुओं से प्राणदान देता है, वह सचमुच धन और सुख देने वाला होता है। “वह यज्ञ करके और लोगों को अभय की दक्षिणा देकर इन्द्रपद प्राप्त कर लेता है। जो ब्राह्मणों के लिए सेना लेकर युद्ध करता है, वह अपने शरीर का यूप बनाकर मानो अनन्त दक्षिणा वाला यज्ञ करता है। युद्ध में जितने शस्त्र उसकी त्वचा का भेदन करते हैं, वह उतने लोकों को प्राप्त करता है। उसके शरीर से जितना रक्त बहता है, उतना ही वह पापों से मुक्त हो जाता है। वह अपने घावों से जितना कष्ट सहता है, उतना ही उसकी तपोवृद्धि होती है। वे अधम पुरुष है, जो युद्ध में शत्रु को पीठ दिखाते हैं। ऐसे भगोड़े क्षत्रिय को काठ और ढेलों से मारना चाहिए, भूसे की आग में जला देना चाहिए। खाट पर मृत्यु क्षत्रिय के लिए अधर्म है। कफ और पित्त से कण्ठवरोध हो जाने पर हाय-हाय करते हुए मरना क्षत्रिय के योग्य नहीं है। जो अविक्षत देह से मृत्यु को प्राप्त करता है, उसकी कोई प्रशंसा नहीं करता। वीर क्षत्रिय की घर में मृत्यु प्रशंसनीय नहीं। यह कायरता, अधर्म और दीनता की बात है। जो दृप्त और अभिमानी वीर है, वह कभी अपने लिए ऐसा नहीं चाहता। क्षत्रिय की मृत्यु ऐसी हो कि रण में मारकाट का पराक्रम करे और तब अपने ज्ञातृयों के बीच में प्राण छोड़े।”[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अ. 98
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