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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 23-29
14. दिग्विजय
जरासन्ध का वध हो जाने पर युधिष्ठिर का राजनैतिक कंटक तो मिट गया, किन्तु राजसूय यज्ञ की सफलता के लिए दूसरी आवश्यकता थी कोष का संग्रह। कोष विवर्द्धन के लिए राजाओं से कर-ग्रहण करना आवश्यक था और कर के आहरण का मान्य उपाय उस समय की राजनीति में दिग्विजय समझा जाता था। अतएव महाभारत के अग्रिम प्रकरण में चार पाण्डव भाइयों द्वारा चारों दिशाओं की दिग्विजय का वर्णन किया गया है। अर्जुन ने उत्तर, भीमसेन ने पूर्व, सहदेव ने दक्षिण और नकुल ने पश्चिम दिशा की दिग्विजय की। ज्ञात होता है कि महाभारत के मूल संस्करण में दिशाओं की विजय का केवल संकेत मात्र था। अर्जुन ने विजय-यात्रा के लिए युधिष्ठिर से प्रार्थना की और उन्होंने उसका समर्थन किया, “योग्य ब्राह्मणों का स्वस्तिवाचन प्राप्त कर शत्रुओं के क्लेश और मित्रों के आनन्द के लिए हे अर्जुन, तुम्हारी निश्चय ही विजय होगी।” यह सुनकर अर्जुन ने दिग्विजय-यात्रा की और उसी प्रकार अन्य भाइयों ने भी धर्मराज की आज्ञा से दिशाओं को जीता। किन्तु इस संक्षिप्त उल्लेख से जनमेजय का मन नहीं भरा। उन्होंने वैशम्पायन से कहा, "हे ब्रह्मन, दिशाओं की इस विजय को विस्तार के साथ कहिए, क्योंकि पूर्वजों का चरित्र सुनते हुए मुझे संक्षेप से तृप्ति नहीं होती।" इस पृष्ठभूमि में वैशम्पायन ने दिग्विजय-पर्व के उस बृहत संस्करण का वर्णन किया, जिसमें देश की चारों दिशाओं के भूगोल और अनेक ऐतिहासिक उल्लेखों का समावेश हो गया है। खाण्डवप्रस्थ से चलकर अर्जुन ने पहले कुणिन्द और कालकूट प्रदेश को जीता। यमुना के उत्तर में देहरादून से जगाधरी तक फैला हुआ प्रदेश कुणिन्द कहलाता था। यहाँ से कुणिन्द गणराज्य के अनेक सिक्के प्राप्त हुए हैं। इसी प्रदेश में कालकूट था, जहाँ हिमालय के किसी शिखर में काले अंजन की खान थी। हिमालय के इस हिस्से के कुछ उत्तर-पश्चिम में पंजाब की पहाड़ी रियासतें सिरमूर, नाहन, बिलासपुर, मंडी आदि भी इस प्रकार भरी हुई हैं, जैसे कटहल में कोए। शिमला की इन पहाड़ी रियासतों के लिए ही सम्भवतः ‘सप्तद्वीप’ इस भौगोलिक संज्ञा का प्रयोग हुआ है। इन्हें ही संसप्तक-गण भी कहते थे। इन पहाड़ी राजाओं के साथ अर्जुन की सेना का तुमुल संग्राम हुआ, किन्तु अन्त मे उन्होंने अधीनता स्वीकार कर ली और स्वयं भी उसकी विजय-यात्रा में सम्मिलित हो गए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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