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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 23-29
14. दिग्विजय
इस भौगोलिक प्रसंग में महाभारतकार का ध्यान हिमालय की तराई में बसी हुई किरात जातियों की ओर गया है। किरात प्रदेश नेपाल से आसाम तक फैला हुआ भूभाग था, जिसके पूर्वी छोर पर प्राग्ज्योतिष देश था। वहाँ के भगदत्त राजा से तथा ब्रह्मपुत्र आदि नदियों के कछारों में रहने वाले एवं समृद्ध की कुक्षि में बसने वाली जातियों से अर्जुन का युद्ध हुआ। अन्त में भगदत्त ने अर्जुन के पराक्रम से प्रसन्न होकर मित्रता की याचना की। अर्जुन ने उससे प्रीतिपूर्वक कर लेना स्वीकार किया। इसी प्रसंग में और भी अनेक पर्वतीय राजाओं को वश में करने का उल्लेख है। हिमालय के भूगोल के विषय में महाभारतकार ने मूल्यवान सूचना देते हुए उनके तीन भाग लिखे हैं-अन्तर्गिरि, उपगिरि और बहिर्गिरि। समानान्तर फैली हुई हिमालय की ये तीन बाहियां थीं, जो उसके भूगोल की सबसे बड़ी विशेषता है। अन्तर्गिरि में हिमालय की लगभग बीस हजार फुट से ऊंची गौरीशंकर, नन्दादेवी, केदारनाथ, बदरीनाथ, त्रिशूल, धवलगिरि आदि चोटियां हैं, जो सदा बरफ से ढकी रहती हैं। इस हिस्से को पाली में महाहिमवन्त कहा है, जो अंग्रेजी में ‘ग्रेट सेन्ट्रल हिमालय’ का पर्याय है। उससे नीचे की ओर हिमालय की वे चोटियां हैं, जो छह हजार से आठ-नौ हजार फुट तक ऊंची हैं। नैनीताल, मसूरी, शिमला आदि स्वास्थ्यप्रद स्थान हिमालय के इसी भाग में हैं, जिसकी प्राचीन संज्ञा बहिर्गिरि थी। इसे पाली में चुल्लहिमवन्त (अंग्रेजी में लैसर हिमालय) कहा जाता था। उपगिरि हिमालय के उस हिस्से का नाम था, जिसे अब तराई कहते हैं। हरिद्वार से देहरादून तक हिमालय की जो उठती हुई ऊंचाई है वह इसी के अन्तर्गत है। पाणिनि ने भी अन्तर्गिरि और उपगिरि इन दो भागों का उल्लेख अपने एक सूत्र[1] में किया है। हिमालय के इस भूगोल का प्रासंगिक उल्लेख करने के बाद दिग्विजय का यह सिलसिला प्राचीन त्रिगर्त या कुल्लू-कांगड़ा की ओर मुड़ता है। इस प्रदेश को कुलूत कहा गया है, जो कुल्लू का संस्कृत रूप है। कुलूत के राजा पर्वतेश्वर बृहन्त ने अपने नगर से बाहर आकर बड़ी सेना के साथ अर्जुन का मार्ग छेका, किन्तु वह उसके विक्रम को न सह सका और उसने रत्न देकर सन्धि कर ली। तब उसे साथ लेकर अर्जुन ने उसी प्रदेश के दूसरे राजा सेनाबिन्दु को एवं मोदापुर, वामदेव और पहाड़ी जातियों से भरे हुए सुदामा पर्वत के प्रदेश को जीतकर उत्तर कुलूत या कांगड़ा के उत्तरी प्रदेश के राजाओं को अपने वश में करके धर्मराज युधिष्ठिर के शासनान्तर्गत कर लिया। ज्ञात होता है, यह सेनाबिन्दु राजा, जिसकी राजधानी का नाम देवप्रस्थ था, उसी पौरव वंश की शाखा में था, जिसने ऐतिहासिक काल में मद्र देश के अपने राज्य की ओर बढ़ते हुए सिकन्दर से लोहा लिया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गिरेश्चसेनकस्य, 5।4।112
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