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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 7-11
12. युधिष्ठिर की सभा
नारद के मुख से प्रश्नों के रूप में राजधर्मानुशासन सुनकर युधिष्ठिर ने विनयपूर्वक उत्तर दिया, “हे भगवान, पूर्व राजाओं ने जिस न्यायोचित मार्ग का अनुसरण किया था, मैं भी यथाशक्ति उनके सत्पथ पर चलने की इच्छा रखता हूँ।” पुनः नारद को स्वस्थ देखकर युधिष्ठिर ने मय दानव द्वारा बनाई हुई अपनी उस सभा के विषय में जानना चाहा। सभा और समिति
वस्तुतः इस प्रसंग में महाभारतकार ने प्राचीन भारत में राजाओं की जो सभा हुआ करती थी, उसके विषय में अच्छा प्रकाश डाला है। वैदिक काल से ही सभा और समिति ये दो महत्त्वपूर्ण राजनीतिक संस्थाएं थीं: सभा राजा की परिषद जैसी संस्था थी और समिति समस्त जन की प्रतिनिधि संस्था थी। वैदिक काल में समिति दोनों में अधिक महत्त्वपूर्ण थी। कालान्तर में जब जनता की राजनैतिक चेतना कुछ फीकी पड़ी, तब समिति का महत्त्व उतना ही घट गया और सभा क्रमशः अधिक महत्त्वपूर्ण होती गई। वैदिक काल में भी सभा के दो अर्थ थे। एक तो सभा सदस्यों की संस्था थी, जिन्हें सभेय कहते थे। सभेय ही आगे चलकर पाणिनीय संस्कृत में सभ्य ‘सभायां साधुः’ कहलाने लगे। सभा का दूसरा अर्थ वह भवन या शाला थी, जिसमें उस संस्था की बैठक होती थी। यह भवन खंभों की सहायता से तैयार किया जाता था, जिन्हें वैदिक भाषा में सभा-स्थाणु कहते थे। वैदिक काल की कोई ऐसी इमारत खुदाई में नहीं मिली, जिसे उस समय की सभा का नमूना कहा जा सके। इसका कारण यह ज्ञात होता है कि उस समय की अधिकांश सभाएं लकड़ी की बनती थीं। इन्हें काष्ठ सभा कहा जाता था। यह शब्द पाणिनि सूत्र[1] (सभा राजामनुष्यपूर्वा) के प्राचीन उदाहरण के रूप में बच गया है। सभा शब्द के वे दोनों अर्थ पाणिनि के समय और उसके बाद की राजनैतिक शब्दावली में भी चालू रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2।4।23
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