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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 91-95
इसके अनन्तर अंगिरा और मान्धाता के संवाद रूप में राजा के गुणों की प्रशंसा की गई है। राजा का जन्म धर्म के लिए होता है, काम के लिए नहीं।[1] जो राजा लोकधर्म-रक्षारूप राजधर्म का पालन करता है, वह देवता की पदवी प्राप्त करता है। यदि वह राजधर्म का आचरण नहीं करता तो नरक में जाता है। सब प्रजाएं राजधर्म में स्थित हैं, राजधर्म राजा में स्थित रहता है। वही राजा सच्चा है, जो राजधर्म का ठीक-ठीक अनुशासन करता है। राजा परम धर्मात्मा हो तो भी यदि वह धन बटोरने लगता है, तो उसे पाप धर दबाता है। यदि पाप का निवारण न किया जाय तो अधर्म बढ़ जाता है। प्रजाओं के मन में ऐसी विहलता छा जाती है, मानो उन्हें कोई मार रहा हो। दोनों लोकों को समझकर ही ऋषियों ने राजा का निर्माण किया कि यह महाप्राण व्यक्ति मूर्तिमान धर्म होगा। राजा वही है जिसमें धर्म विराजमान हो। जिसमें राजधर्म का लोप हो जाता है, उसे देवता वृषल कहते हैं। धर्म की वृद्धि से सब भूत बढ़ते हैं। धर्म के हृास से प्रजाओं का हृास होता है। इसलिए प्रजाओं का अनुग्रह करने के लिए धर्म को बढ़ाना चाहिए। फिर सर्वस्वों में धर्म सबसे अधिक प्रिय वस्तु है। जो धर्म को चुनता है, वही राजा है। राजा काम और क्रोध को छोड़कर धर्म का ही पालन करे। राजाओं के लिए धर्म सबसे अधिक श्रेयस्कर है। ब्राह्मण धर्म के स्त्रोत हैं, इसलिए उनका सम्मान करे। कहते हैं कि यज्ञ में कुछ त्रुटि हो जाने से देवी श्री ने दर्प को जन्म दिया। दर्प ने देवों और असुरों को अपने वश में कर लिया। जो उसे जीत लेता है, वही राजा है, जो उसके वश में है, वही दास है। राजा को प्रमादरहित होना चाहिए, अन्यथा उसे अनेक दोष घेर लेते हैं और राजा का नाश करने वाले अनेक उत्साह प्रकट हो जाते हैं। जो राजा स्वयं अरक्षित रहकर प्रजाओं की रक्षा नहीं करता, उसकी प्रजाएं स्वयं क्षीण हो जाती हैं। यहाँ राजधर्म और राजा के प्रमाद तथा उन दोनों का तारतम्य या भेद बताया गया है। एक से धर्म और दूसरे से पाप बढ़ता है। मेघ समय से जल बरसाये और राजा धर्म का पालन करे, इन्हीं दो बातों से प्रजाओं में सुख-सम्पत्ति होती है। जो धोबी कपड़ों का मैल छुड़ाना नहीं जानता, उसका होना या न होना एक-सा है। एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह बताया गया है कि राजा ही युग है। सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग- ये सब राजधर्म से ही होते हैं। राजा ही प्रजाओं को कर्ता और राजा ही उनका नाशक है। धर्मात्मा उनको बनाने वाला और अधर्मात्मा उनको नष्ट करने वाला होता है। यदि राजा प्रमाद करता है, तो उसके पुत्र, मित्र, बन्धु-बान्धव और स्त्रियां सबको शोक का सामना करना पड़ता है। राजा को उचित है कि राज्य में किसी को दुर्बल न रखे। दुर्बल की हाय राजा को जला देती है। जब राजा के नौकर-चाकर जनपद में घुसकर प्रजा पर अत्याचार करने लगते हैं, तो उसका बड़ा पाप राजा पर पड़ता है। जब ‘युक्त’ संज्ञक राजपुरुष प्रजाओं का धन छीनने लगते हैं, तो वह राजा के लिए जैसे बड़ी हत्या हो। जब कोई महावृक्ष बढ़ता है, तो लोग उसका आश्रय लेते हैं। पर जब उसे काट डालते या जला देते हैं, तो उसका आश्रय लेने वाले घर-बार से रहित हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ धर्माय राजा भवति न कामकारणाय तु। मान्धातरेवं जानीहि राजा लोकस्य रक्षिता।
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