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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 28-30
22. धर्म और कर्म की गहन गति
इसके अनन्तर पाण्डव उस महाअरण्य के एक भाग में स्थित द्वैतवन नामक स्थान में पहुँचे। वहाँ एक बड़ा सरोवर था। वहीं पर मार्कण्डेय उनसे मिलने के लिए आये। पाण्डवों को उस अवस्था में देखकर मार्कण्डेय के मुख पर किसी विचार की रेखा दौड़ गई और दूसरे ही क्षण उनका चेहरा मुस्कराहट से खिल गया। यह देखकर युधिष्ठिर ने पूछा, “भगवन, अन्य सब तपस्वी हमारी इस दशा से खिन्न हैं, आपके हंसने का क्या कारण है?” मार्कण्डेय ने कहा, “हे तात, न मैं प्रसन्न हूं, न हंसता हूँ। आपकी इस आपदा को देखकर मुझे उन सत्यव्रती दाशरथि राम का स्मरण हो आया, जिन्होंने पिता की आज्ञा से भोगों को त्याग कर अपने भाई लक्ष्मण के साथ वन में निवास किया था। मैंने अनेक महानुभाव राजाओं को राज्य करते और कष्ट पाते देखा है। अपनी दीर्घ आयु के अनुभव से मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि मनुष्य अपने को बली समझकर कभी अधर्म न करे।[1] नाभाग, भागीरथ आदि राजाओं ने सागरान्त पृथ्वी को जीतकर केवल सत्य के बल से ही लोकों को वश में किया। कहते हैं‚ काशी और करूष के राजा अलर्क ने सारी पृथ्वी को वश में कर लिया था, किन्तु उन बाणों से वे अपने मन को न बेध सके। तब मन ने उनसे कहा, ‘हे अलर्क, मुझे वश में करने के लिए अन्य बाणों को खोजो।’ अलर्क ने बात समझी और योगरूपी बाण से मन को वश में किया एवं अपना राष्ट्र और धन, दोनों त्यागकर तपस्वी बन गए। इसीलिए मेरा अनुभव है कि संसार में बल तुच्छ है। देखिए, विधाता ने इस विश्व में जो पुराना विधान चलाया है, उसे मानकर ही सप्तर्षि द्युलोक में चमकते हैं। मनुष्य की उसी विधान की पूजा से प्रकाशित हो सकता है। बड़े मत्त, दन्तावल हाथी भी विधाता के उस निदेश को मानते हैं। जगत में बल ही सब कुछ नहीं है। आपने भी सत्य और धर्म से दीप्त तेज और यश प्राप्त किया था। हे महानुभाव, वनवास के इस कष्ट को भोगकर आप पुनः अपनी उस दीप्त लक्ष्मी को प्राप्त करेंगे। बल और अधर्म सदा नहीं टिक सकेंगे।” यह कहकर मार्कण्डेय विदा हुए। उनके चले जाने पर द्वैतवन में रहने वाले एक दूसरे तपस्वी मुनि बक दाल्भ्य ने युधिष्ठिर को ब्रह्म और क्षत्र के परस्पर मेल का महत्त्व समझाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नेशे बलस्येति चरेदधर्मम्
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