विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 67
मनुष्यों में प्रधान अपने शस्त्र और वाहन लेकर आपके पीछे चलेंगे। आपसे सुरक्षित प्रजाएं जो धर्म करेंगी, उसका चौथा भाग आपको प्राप्त होगा। उस सहज प्राप्य धर्म से प्रसन्न होकर आप हमारी रक्षा करें, जैसे देवराज इन्द्र देवों की करता है। शीर्घ विजय के लिए निकलिये, शत्रुओं का मानमर्दन कीजिये। हममें धर्म की सदा जय हो।” यह सुनकर महातेजस्वी मनु बड़ी सेना के साथ विजय के लिए निकले। राजा की महिमा देखकर सब लोग भयहीन हो गये और सबने धर्म में मन लगाया। तब राजा ने सारी पृथ्वी का पर्यटन किया और पापियों के पाप छुड़ाकर उन्हें धर्म में लगाया। इसलिए पृथ्वी के जो मनुष्य अपना कल्याण चाहें वे सर्वप्रथम राजा का वरण करें। शिष्य जैसे गुरु को, ऐसे ही प्रजाएं राजा को भक्तिपूर्वक प्रणाम करें। राजा का शत्रुओं से पराभव सबको असुखावह होता है। अतः प्रजाओं को उचित है कि छत्र, वाहन, वस्त, आभरण, भोजन पान, आसन, शय्या और सब उपकरण राजा को प्रदान करें। राजा को गुप्तात्मा, दुराधर्ष, प्रसन्न मुख से भाषण करने वाला, श्रुतज्ञ, दृढ़ भक्त, दानी, जितेन्द्रिय, मृदु और सरल होना चाहिए।” इस प्रकरण में भीष्म ने राजनीति के एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त का वर्णन किया है कि राजा की उत्पत्ति कैसे हुई। इसमें तीन तत्त्व हैं। पहला यह कि प्रजाएं मात्स्यन्याय से रहती थीं और वे नष्ट होने लगीं। दूसरा यह कि इस स्थिति से अपना उद्धार करने के लिए उन्होंने राजा का वरण किया। तीसरी बात यह कि राजा के और प्रजाओं के बीच एक शर्तनामा तय हुआ जिसके अनुसार प्रजाओं ने राजा को कर देना स्वीकार किया और राजा ने उनकी रक्षा और पालन का दायित्व लिया। भारतीय राजशास्त्र का यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त पश्चिमी राजशास्त्र में भी पाया जाता है, जहाँ इसे ‘सामाजिक समय’ या ‘सोशल काण्ट्रैक्ट’ का सिद्धान्त कहते हैं।[1] 76. राजा का देवत्व विचार
युधिष्ठिर ने पूछा, “हे पितामह, यद्यपि राजा मनुष्य है, फिर भी उसे देवता क्यों कहते हैं?” भीष्म ने कहा, “इस विषय में एक वसुमना नामक राजा ने बृहस्पति से यही प्रश्न किया था। राजा को विनय या अनुशासन का ज्ञान था और वह अपने राज्य में वैनयिक सम्बन्धी सब कर्मों का सम्पादन कर चुका था।” वैनयिक पारिभाषिक शब्द था। उसकी व्याख्या पाणिनी और कौटिल्य ने की है। वैनयिक-[2] यह सूत्र अति महत्त्वपूर्ण है। विनयादिगण में पठित कई शब्द शासन की जीवित परम्परा से लिए गए थे। ‘विनयः एव वैनियकः’ अर्थात विनय शब्द से स्वार्थ में ‘क’ प्रत्यय जोड़कर वैनयिक सिद्ध होता है। इसका तात्पर्य यह है कि विनय और वैनयिक दोनों शब्दों के अर्थ में अन्तर न था। हां, वैनयिक शब्द अधिक गौरवपूर्ण और व्यन्जक था। इसी प्रकार सामयिक और औपयिक, सामयाचारिक आदि शब्द थे। राजा, राजकुमार, राजपुरुष, प्रजा आदि के लिए अनुशासन की शिक्षा को कौटिल्य ने ‘विनयाधिकार कहा’ है। वस्तुतः विनय ही राज्य का मूल है। विनय या वैनयिक के अभाव में धर्ममूलक राज्य की कल्पना असम्भव समझी जाती थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज