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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
परिशिष्ट
महापुरुष श्रीकृष्ण
भारतवर्ष के जिन महापुरुषों का मानव जाति के विचारों पर स्थायी प्रभाव पड़ा है, उनमें श्रीकृष्ण का स्थान प्रमुख है। आज से लगभग पाँच सहस्र वर्ष र्पूव एक ही समय में दो ऐसे व्यक्तियों का जन्म हुआ, जिनके उदात्त मस्तिष्क की छाप हमारे राष्ट्रीय जीवन पर बहुत गहरी पड़ी है। संयोग से उन दोनों का नाम ‘कृष्ण’ था। समकालीन इतिहास लेखक ने दोनों में भेद करने के लिए एक को 'द्वैपायन कृष्ण' कहा है, जिन्हें आज सारा देश महर्षि वेदव्यास के नाम से जानता है, और जिनके मस्तिष्क की अप्रतिहत प्रतिभा से आज तक हमारे धार्मिक जीवन और विश्वासों का प्रत्येक अंग प्रभावित है। दूसरे देवकी पुत्र वासुदेव कृष्ण थे, जिन्हें हम अब केवल ‘कृष्ण’ के नाम से पुकारते हैं। कृष्ण की बाल लीलाओं के मनोरम आख्यान, उनके गीताशास्त्र के महान उपदेश तथा महाभारत के युद्ध में उनके विविध आर्योचित कर्मों की कथाएं आज घर-घर में प्रचलित हैं। असंख्य मनुष्यों का जीवन आज कृष्ण के आदर्श से प्रभावित होता है। वस्तुतः हमारे साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण चरित्र से अनुप्राणित हुआ है। कृष्ण के जीवन की घटनाएं केवल अतीत इतिहास के जिज्ञासुओं के कुतूहल का विषय नहीं है, वरन् वे धार्मिक जीवन की गतिविधि को नियंत्रित करने के लिए आज भी भारतीय आकाश में चमकते हुए आकाश दीप की तरह सुशोभित और जीवित हैं। जन्म और बालजीवनअष्टमी, बुधवार, रोहिणी, इस प्रकार के तिथिवार नक्षत्र योग में आधी रात के समय अपने मामा औग्रसेनि कंस के बन्दीगृह में कृष्ण का जन्म हुआ। इसी एक बात से उस काल के राजनीतिक चक्र का आभास मिल जाता है। जिस व्यक्ति के जन्म के भय से ही उसके माता-पिता की स्वतंत्रता छीन ली गई थी, क्या आश्चर्य यदि उसके जीवन के अधिकांश समय देश के राजनीतिक कांटों को साफ करने और प्रजा को अत्याचार और उत्पीड़न से मुक्त करने में व्यतति हुआ हो। उस काल के जो भी उच्छृंखल, लोकपीड़क सत्ताधारी थे, उन सबसे ही एक-एक कर के कृष्ण की टक्कर हुई। जिस महापुरुष ने योक-समाधि के आदर्श को लेकर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त करने का उपदेश दिया हो, जिसका अपना जीवन अविचल ज्ञान-निष्ठा का सर्वोत्तम उदाहरण हो, उसके ही जीवन में कंस निपात से लेकर यादवों के विनाश तक की कथा अत्यंत करुण कहानी के रूप में पिरोयी हुई है। कृष्ण का बालजीवन तो एक काव्य ही है। जन्म से लेकर अथवा उससे पूर्व ही, उनके सम्बन्ध के अतिमानीव चरित्रों का क्रम आरम्भ हो गया था। उनके वृन्दावन छोड़कर मथुरा आने के समय तक ये बाल लीलाएं आकाश में एकत्र होने वाली सुन्दर सुखद मेघमालाओं की भाँति नाना वर्ण और रूपों में संचित होती रहीं। बिना कहे ही उन्हें हम जानते हैं। हमारे देश के बालवर्ग के लिए तो उन कथाओं की रसमय सामग्री अत्यंत प्रिय वस्तु है। यमुना नदी और उसके समीप के पीलु के विटपों पर लहलहाती हुई लताओं के कुंजों में कृष्ण के बालचरित्रों की प्रतिध्वनि आज भी जीवित काव्य कथाएं हैं। यहीं पर उन्होंने उस मल्ल-विद्या का अभ्यास किया जिसके कारण आगे चलकर मुष्टिक और चाणूर जैसे पहलवान पछाड़े गए। यमुना के कछाड़ों में ही उस संगीत और नृत्य का जन्म हुआ, जो हमारी संस्कृति की एक प्रिय वस्तु है। यहीं गोवंश की वृद्धि और प्रतिपालन के वे प्रयत्न किये गये, जिनका पुनरुद्धार हमारे कृषि प्रधान देश के लिए आज भी प्राप्तव्य आदर्श के रूप में हमारे सामने हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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