विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 80
25. तीर्थ-यात्रा-1
नलोपाख्यान के अनन्तर महाभारत का एक विशिष्ट प्रकरण तीर्थ-यात्रा-पर्व है। पूना के संशोधित संस्करण में अध्याय 80 से अध्याय 153 तक कुल 74 अध्याय इस उपपर्व में हैं, जिनके ये तीन विभाग हैं: (1.) पुलरत्य-तीर्थयात्रा,[1] (2) धौम्य-तीर्थ यात्रा,[2] (3) लोमश तीर्थ-यात्रा।[3] प्राचीन काल में तीर्थ भू-सन्निवेश के विशिष्ट केन्द्र थे। नदियों के निर्जन तटों पर और घने जंगलों में जब मनुष्य-समुदाय पहुँचता और बस्तियों की कल्पना की जाती तब तीर्थों का जन्म होता था। तीर्थ-स्थान जन-निवास, धर्म, विद्या, व्यापार और संस्कृति के आदि-केन्द्र बन जाते थे। पुराणों के समस्त तीर्थ-यात्रा-प्रसंगों को टटोला जाय तो उसका निश्चित फल भारत-भूमि का विशद परिचय है। तीर्थ-यात्रा द्वारा अपनी भूमि का साक्षात दर्शन किया जाता था। तीर्थ-परिक्रमा के जो प्रसिद्ध स्थल हैं, उन्हें तीर्थ-यात्री क्रमानुसार देखता हुआ चलता था। इस प्रकार चारों दिशाओं की यात्रा या परिक्रमा का दूसरा नाम प्रदक्षिणा है। इसमें यात्री घड़ी की सूई की तरह सदा अपने दाहिने हाथ की ओर घूमता है। महाभारत के इस प्रकरण में तीर्थ-यात्राओं के तीन प्राचीन वर्णन सुरक्षित रह गए हैं। कथा का प्रसंग इस प्रकार हैः युधिष्ठिर भाइयों के साथ काम्यक वन में ठहरे हुए हैं। अर्जुन दिव्य अस्त्रों की प्राप्ति के लिए तप करने चले जाते हैं। उनके विरह में सब भाई और द्रौपदी दुःखी हैं। ऐसे समय नारद युधिष्ठिर के पास आते हैं और उनके मन की ग्लानि दूर करने के लिए पुलस्त्य और भीष्म के संवाद-रूप में भारतवर्ष के तीर्थों का वर्णन करते हैं।[4] नारद के चले जाने के बाद युधिष्ठिर ने सौम्य से पूछा कि अपना जी बहलाने के लिए हम लोग वन से अन्यत्र कहाँ जाकर रहें। उन्हें दुःखी देखकर उन्हें सान्त्वना देने के लिए धौम्य भी एक तीर्थ-परिक्रमा का वर्णन करते हैं।[5] इस प्रकार ये दो तीर्थ-वर्णन हमारे सामने हैं। पुलस्त्य के तीर्थ-वर्णन में 598 श्लोक और धौम्य के तीर्थ-यात्रा-पर्व के चार अध्यायों में केवल 102 श्लोक हैं। वस्तुतः धौम्य की तीर्थ-यात्रा ही महाभारत का मूल अंश था। वह अधिक प्राचीन, संक्षिप्त और क्रमबद्ध है। धौम्य की तीर्थ-यात्रा काम्यक वन से चलकर पूर्व में गया और महेन्द्र एवं पश्चिम में पुष्कर और द्वारका तक जाती है। दक्षिण की ओर उसका विस्तार कन्याकुमारी तक है। पुलस्त्य की तीर्थ-यात्रा का क्षेत्र पूरब में कामरूप और पश्चिम में सिन्धु-सागर-संगम तक है। दक्षिण में यह भी कन्याकुमारी तक जाती है। पुलस्त्य की तीर्थ-यात्रा के साथ वक्ता-रूप में नारद का नाम जुड़ा हुआ है। विदित होता है कि यह प्रसंग गुप्त-काल के लगभग जोड़ा गया। उसके बाद में जोड़े जाने का एक स्पष्ट प्रमाण यह भी है कि धौम्य-तीर्थ-यात्रा के अन्त में फलश्रुति का एक श्लोक भी नहीं है, किन्तु नारद-पुलस्त्य तीर्थ-यात्रा के अन्त में नियमानुसार फलश्रुति दी हुई है।[6] उन दोनों तीर्थ-यात्राओं को सुनने के बाद युधिष्ठिर लोमश ऋषि का अपने आश्रम में स्वागत करते हैं और पथ-प्रदर्शन के लिए उन्हें साथ लेकर तीर्थ-यात्रा के लिए निकलते हैं। इसका वर्णन अनेक अवान्तर कथाओं के साथ 65 अध्यायों[7] में पाया जाता है। देश की चारों दिशाओं का यथा-सम्भव दर्शन इन तीर्थों के ही अन्तर्गत आ जाता है। उन्हें पढ़ने से मन पर यह छाप पड़ती है कि बदरी-केदार एवं कैलास-मानसरोवर से लेकर दक्षिण दिशा में कन्याकुमारी तक की भूमि एक अखण्ड भौतिक एवं धार्मिक संस्थान के अन्तर्गत मानी जाती थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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