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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 129-167
अध्याय 150-151 में एक बहुत ही मनोहर कहानी दी गयी है। उसका उद्देश्य यह बताना है कि बलवान शत्रु से लोहा लेकर भी दुर्बल राजा प्रज्ञा या बुद्धि के जोर से कैसे अपनी रक्षा कर सकता है। कहते हैं कि हिमालय में सेमल का एक पेड़ था। उसके गुद्दे, शाखा और पत्ते सब सकुशल देखकर नारद ने पूछा कि पहाड़ की चोटियों और बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़ फेंकने वाले बलवान वायु के होते हुए तुम इतनी अच्छी दशा में कैसे हो? सेमल ने कहा, “मैं बुद्धि के बल से अपनी रक्षा करता हूँ।” यह सुनकर नारद ने वायु से चुगली खाई, जिसे सुनकर वायु क्रुद्ध हुआ और सेमल पर चढ़ाई करने के लिए उस जंगल में आया। यह देखकर सेमल ने सोचा, ‘कोई दूसरा वृक्ष मेरे समान बुद्धिमान नहीं है। मैं अपने बुद्धिबल से इस भय को पार करूंगा’।[1] तब सेमल ने अपनी पत्तियां, टहनियां और शाखाएं गिरा दीं। वह मोटे गुद्दों के साथ ठूंठ मात्र बन गया। उसने मुस्कराकर वायु का मुकाबला किया और वायु का अन्धड़ उसका कुछ न बिगाड़ सका। अच्छी नीति तो यही है कि दुर्बल बलवान के साथ वैर न करे, किन्तु यदि मौका पड़ ही जाय तो बुद्धि से अपनी रक्षा करनी चाहिए।[2] लोभ प्रश्न यह उठाया गया है कि राजा के सबसे बड़े पापों में कौन बड़ा पाप है? उत्तर में कहा गया है कि लोभ सबसे बड़ा दुष्कर्म है। लोभ से क्रोध, लोभ से काम, लोभ से मोह, माया, अभिमान, अकड़, जुआ, लज्जा का परित्याग, श्री नाश और धर्म संक्षय, चिन्ता और अप्रज्ञता सभी कुछ लोभ से हो जाता है। अन्याय, वितर्क, विकर्म, कूट विद्या आदि, रूप और ऐश्वर्य का मद, सब में अविश्वास, कुटिलता, सब में अयुक्तता और अभिद्रोह, पराये धन का हरण, परस्त्री पर कुदृष्टि, वाग्वेग, मानस वेग, निन्दा वेग, काम और भूख का वेग, दारुण मृत्यु, ईर्ष्या वेग, मिथ्या वेग, रस लोलुपता, श्रोत वेग, निन्दा और शेखी, मात्सर्य, दुष्कर्म, सब तरह का साहस, ये सब लोभ से उत्पन्न हो जाते हैं। बुढ्डा होता हुआ भी व्यक्ति इन्हें नहीं छोड़ता। जितना अधिक मिलता है, उतना ही अधिक लोभ बढ़ता है, जिस प्रकार समुद्र का पाट बड़ी-बड़ी नदियों के जल से भी पूरा नहीं भरता। अतएव अपने आप को जीतकर लोभ को वश में करना चाहिए। शास्त्रों के पण्डित भी, बड़े लोगों के बड़े-बड़े संशयों को अपनी बुद्धि से काटने वाले व्यक्ति भी लोभ के जाल में फंस जाते हैं। ऐसे लोग अपने-अपने झंडे लगाकर संसार को मूड़ लेते हैं।[3] एक सनातन मार्ग को मेंटकर अपने युक्ति बल से वे धर्म की सैकड़ों राहें निकाल देते हैं। लोभ से ग्रस्त होकर वे संस्था को बेच डालते हैं। लोभ से ग्रस्त बुद्धि वाले लोगों में दर्प, क्रोध, मद, स्वप्न, हर्ष, शोक, अतिमानिता ये दोष भी आ जाते हैं। इसी प्रसंग में प्रज्ञादर्शन के अनुयायी बुद्धिमान व्यक्तियों के गुणों की भी एक लम्बी सूची दी गई है। जैसे शिष्टाचारप्रिय, दान्त, सुख-दुःख में समभाव वाले, सत्यपरायण, दाता, याचना रहित, दयावान, पितृ, देवता और अतिथियों के प्रेमी, सर्वोपकारी, धीर, सर्वभूतहितकारी, सब कुछ दे डालने वाले, धर्म कार्यों में पारंगत ओर अविचल असंभिन्न-वृत्त, अत्रासदायक, अरौद्र, सत्पथ में स्थित, काम-क्रोध रहित, निरहंकारी, सुव्रती, स्थिर और मर्यादावान व्यक्तियों के पास जाकर धर्म के विषय में प्रश्न करना चाहिए, क्योंकि वे भूमि या यश के लिए धर्माचरण नहीं करते। वह तो उनका स्वभाव ही हो जाता है। भय, क्रोध, चापल्य, शोक, धर्म का दिखावा, गुह्य आदि उनमें नहीं होता। वे लोभ-मोह रहित होते हैं।[4][5] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ किं तु बुद्धया समो नास्ति मम कश्चिद्वनस्पतिः।
तदहं बुद्धिमास्थाय भयं मोक्ष्ये समीरणात्।। (151-16) - ↑ तस्माद्वैरं न कुर्वीत दुर्बलो बलबलतरैः। (151-27)
- ↑ धर्मवैतंसिकाः क्षुद्रा मुष्णान्ति ध्वजिनो जगत्। (152।16)
- ↑ शिष्टांस्तु परिपृच्छेथा यान्वक्ष्यामि शुचिव्रतान्।
येषु वृत्तिभयं नास्ति परलोकभयं न च।।20।।
नाभिषेषु प्रसंगोऽस्ति न प्रियष्वप्रियेषु च।
शिष्टाचारः प्रियो येषु दमो येषु प्रतिष्ठितः।।21।।
सुखं दुःखं परं येषां सत्य येषां परायणम्।
दातारो न गृहीतारो दयावन्तस्थैव च।।22।।
पितृदेवातिथेयाश्व नित्योद्युक्तास्तथव च।
सर्वो पकारिणो धीराः सर्वधर्मानुपालकाः।।23।।
सवर्तभूतहिताश्वैव सर्वदेयाश्व भारत।
न ते चलयितुं शक्या धर्मव्यापारपारगाः।।24।।
ने तेषां भिद्यते वृतं यत्पुरा साधुभिः कृतम्।
न त्रासिनो न चपला न रौद्राः सत्पये स्थिताः।।25।।
ते सेव्याः साधुभिर्नित्यं येष्वहिंसा प्रतिष्ठिता।
कामक्रोधव्ययेता ये निर्ममा निरहंकृताः।
सुव्रताः स्थिरमर्यादा तानुपास्व च पृच्छ च।।26।। (अ. 152)
- ↑ अ. 152
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