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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 168-353
अध्याय 252 से 256 तक के पांच अध्यायों में गृहस्थ धर्म की महिमा का एक हृदयस्पर्शी दृष्टान्त दिया गया है। जाजलि नाम का एक तपस्वी वन में तप करने लगा। वह इतना सफल हुआ कि उसकी जटाओं में पक्षियों ने अण्डे दे दिये। उनमें से बच्चे निकले, फिर भी जाजलि का ध्यान भंग नहीं हुआ। इससे उसे अभिमान हो गया। वह जब नदी में स्नान करने गया तब उसने आकाशवाणी सुनी कि तुम्हारा धर्म-ज्ञान अभी तुलाधार वैश्य के समान नहीं हुआ। यह महाप्राज्ञ तुलाधार वाराणसी में रहता है। वह भी धर्म के विषय में ऐसा दावा नहीं कर सकता जैसा तुम करते हो। यह सुनकर जाजलि आश्चर्यचकित हो गया और तुलाधार को खोजता हुआ वाराणसी आया। तुलाधार ने उसका स्वागत किया और कहा कि हे ब्राह्मण, तुम जब आ रहे थे, तभी हमने जान लिया था। तुमने समुद्र के किनारे महान तप किया, किन्तु धर्म के रहस्य को नहीं जाना। तुम्हारी जटाओं में पक्षियों ने घोंसला बना लिया था। आकाशवाणी सुनकर तुममें क्रोध आ गया। जाजलि ने तुलाधार से इसका रहस्य पूछा, तो उसने कहा, “मैं गन्ध द्रव्यों का व्यापार करता हूँ। मेरी जीविका में किसी प्राणी से द्रोह नहीं है। मेरे किसी भी काम में माया या छल नहीं है। मैं सब प्राणियों के हित में कार्य करता हूँ। मैं मिट्टी और सोने को एक-सा मानता हूँ। मैं किसी दूसरे के काम की न प्रशंसा करता हूं, न निन्दा। सब भूतों में समता मेरा व्रत है। मेरी तुला मुझे इष्ट और अनिष्ट में, राग और द्वेष में समत्व भाव रखने की चेष्टा देती है।” तुलाधार ने 186 श्लोकों के संवाद में जिस धर्म की व्याख्या की, उसमें यज्ञ का कोई उल्लेख न था। ज्ञात होता है कि यह कम या अधिक बौद्ध-धर्म के ही उपदेशों का एक संस्करण था। इस पर जाजलि ने पूछा कि यह तुम्हारा सिखाया हुआ धर्म है। यदि इसे हम मान लें, तो स्वर्ग का द्वार बन्द हो जायगा। इस पर तुलाधार ने कहा, “मैं नास्तिक नहीं हूं, न यज्ञ की निन्दा करता हूँ। किन्तु जो विशुद्ध प्रज्ञाधर्म है, जो सम्यक् वृत्ति है, जो सम्यक् कर्म, सम्यक् वाणी और सम्यक् धर्म है, उसी की व्याख्या करता हूँ।” ज्ञात होता है, तुलाधार की अधिकांश शिक्षा बौद्धों के ग्रन्थ धम्मपद से संकलित की गई थी। जैसे- अध्याय 257 में यज्ञों में अहिंसा का प्रतिपादन किया गया है, जिसकी संज्ञा विचख्नु गीता है। अध्याय 258 में यह व्यावहारिक प्रश्न उठाया गया है कि जीवन में कार्य की साधना चिरकाल तक करनी चाहिए या अचिरकाल तक। अन्त में यही निर्णय किया गया है कि चिरकाल तक सब धर्मों की उपासना होनी चाहिए। अध्याय 259 में कहा गया है कि सतयुग में केवल ‘धिक् दण्ड’ था, द्वापर में ‘आदान दण्ड’ या जुर्माना आवश्यक था और जब वध दण्ड आवश्यक है। अतः राज्य चलाने के लिए शारीरिक दण्ड आवश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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