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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
5. उद्योग पर्व
अध्याय : 1-3
43. सैन्योद्योग
इस पांचवें पर्व में एक सौ सत्तानवें अध्याय हैं। कथा-प्रवाह और अध्यात्म-सामग्री का इसमें अच्छा समन्वय पाया जाता है। तेरह वर्ष के वनवास की तपस्या से पाण्डव कंचन की तरह तप रहे थे। परिस्थिति उनके पक्ष में न्याय की पुकार कर रही थी। पर सत्य के उस बिन्दु तक पहुँचने में अभी कई बाधाएं थीं। उन्हीं को हटाने के आरम्भिक प्रयत्नों की झांकी इस पर्व में मिलती है। इनमें सबसे आकर्षक कृष्ण का कौरवों की सभा में दूत बनकर जाना है, जहाँ उन्होंने शान्ति की याचना का यह स्वर ऊंचा कियाः अप्रणाशेन वीराणामेतद् याचितुमागतः।।
इस तरह की उधेड़-बुन से धृतराष्ट्र की नींद जाती रही; उसे ही कथाकार ने “प्रजागर” कहा है। उस व्याधि को दूर करने के लिए भारतीय विचारों के महाकोष में से दो प्रकार की औषधि धृतराष्ट्र को दी गई, एक विदुर के नीति-धर्म की, दूसरी सनत्सुजात ऋषि के अध्यात्म-धर्म की। ये दोनों ही इस पर्व के विशिष्ट रसपूर्ण स्थल और महाभारत के चमकते हुए रत्न हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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