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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 129-167
पालित मूषक और लोमष बिडाल के ऊपर कहे दृष्टान्त में यह विस्तार से समझाया गया है कि आदि काल में जो अपना शत्रु है, किसी कारणवश वह अपना मित्र भी हो जाय, तो भी उसका विश्वास नहीं करना चाहिए। अब एक दूसरा दृष्टान्त इसलिए दिया जाता है कि यदि किसी विशेष कारण से शत्रुता या अविश्वास आ जाय, वहाँ परस्पर कैसा व्यवहार करना चाहिए। राजा विश्वसी करे, या न करे? अविश्वास से शत्रु को किस प्रकार वश में किया जाय? पांचाल की राजधानी काम्पिल्य नगर में राजा ब्रह्मदत्त राज्य करते थे। उनके महल में पूजनी नामक चिड़िया ने चिरकाल से घोंसला बना रखा था। वह पक्षी योनि में होने पर भी सर्वज्ञ थी और सबकी बात समझती थी। उस चिड़िया के और राजा के एक साथ ही पुत्र हुए। वह समुद्र तीर पर जाकर अपने पुत्र और राजा के पुत्र की पुष्टि के दो फल ले आई। उसने एक अपने पुत्र को और दूसरा राजपुत्र को दे दिया। उन फलों में अमृत जैसा स्वाद था। एक दिन ऐसा हुआ कि धात्री की गोद में बैठे हुए राजपुत्र के खेल-खेल में उस चिड़िया के बच्चे को मार डाला। इससे पूजनी को बहुत दुःख हुआ। वह आंखों में आंसू भरकर विलाप करने लगी। उसने कहा, “क्षत्रिय के साथ कोई प्रीति और मेल नहीं करना चाहिए। मार-काट ही उसका कर्म है। मैं भी इस कृतघ्न से बदला लूंगी।” यह कहकर उसने अपने पंजों से राजपुत्र की आंखें फोर डाली, और तब राजा से कहा प्रतिकार कर देने पर भी शुभाशुभ कर्म मिटता नहीं है। पुत्र या पौत्र में उसका फल अवश्य जाता है। ब्रह्मदत्त ने कहा, “तुम्हारे साथ जैसा हमारे यहाँ व्यवहार हुआ, वैसा तुमने भी कर दिया, इसलिए विश्वास के साथ तुम यहाँ रहो।” पूजनी ने उत्तर दिया, “एक बार अपराध करने पर फिर वहीं रहना ठीक नहीं। कितनी भी सान्त्वना की जाय, वैर कभी शान्त नहीं होता। एक दूसरे के प्रति वैर करने वालों में सन्धि नहीं होती। पूर्वापकारी का मित्र अविश्वासी हो जाता है। पहले जहाँ आदर हो, सम्मान हो, बाद में अनादर हो जाय, वहाँ नहीं रहना चाहिए। मैं तुम्हारे यहाँ बहुत दिनों तक सुख से रही, अब वैर उत्पन्न हो गया। अतः मैं जाती हूँ।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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