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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
13. अनुशासन पर्व
अध्याय : 1-146
दो देवताओं की महिमा का कथन इस पर्व में आया है। इसमें से विष्णु की महिमा को शान्तिपर्व में बहुत जगह दिया जा चुका है, फिर भी अध्याय 139, 147-50, में उपबृंहण है। भागवतों द्वारा भगवान विष्णु का जितना भी गुणगान किया गया है, वह अपर्याप्त था और उसी की पूर्ति यहाँ विष्णु-सहस्रनाम द्वारा की गई है।[1] इन नामों का परिगणन भीष्म ने युधिष्ठिर से किया है। इसमें कई प्रकार के नाम हैं, ऋषियों से परिगीत, विख्यात और गौण। विक्रम की पहली दूसरी शती के लगभग इसकी रचना हुई होगी। मत्स्यपुराण में आया है कि मद्र देश के राजा पुरुरवा ने रूप प्राप्ति के लिए हिमालय में शेषशायी विष्णु के मंदिर में मासोपवास करते हुए विष्णुसहस्रनाम का पाठ किया। इस प्रकार के स्तोत्र की रचना दुष्कर कार्य था। ऐसे स्तोत्र में लगभग आधे नाम वेद से लिए जाते थे। शेष में लौकिक संस्कृत से चुने हुए विख्यात नाम होते थे और बाकी पूर्ति गौण नामों से की जाती थी। वैदिक नामों से विरचित सतोत्र वेदगर्भ कहलाते थे। कुछ प्रसिद्ध वैदिक नाम इस प्रकार है- वषट्कार, शर्व, स्थाणु, स्वयम्भू, विश्वकर्मा, मनु, त्वष्टा, ईशान, प्राण, प्राणद, हिरण्यगर्भ, विश्वरेता, वृषाकपि, वसुमना, रुद्र, अमृत, कवि, हंस, वाचस्पति, यज्ञ-साधन, अन्न, अन्नाद, आत्मयोनि, सामगायन, आदि। इस प्रकार के स्तोत्र में कई नाम एक से अधिक बार आये हैं, जैसे अज, हिरण्यगर्भ, प्राण, शिव, गोपति, श्री निवास, चतुरात्मा, चर्तुव्यूह। लेखक मनुष्य ही था और उसने नामों की जो बड़ी सूची इकट्ठी की थी, उसे सहस्र की संख्या में खपा दिया। इस प्रकार के स्तोत्र में नामों का कोई क्रम न था। विष्णु, शिव और वैदिक देवों के विशेषण एक साथ घुल-मिल गये हैं। विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र का उत्तर भारत में अत्यधिक प्रचार हुआ। आठवीं शती के अन्त में शंकराचार्य ने इस पर एक भाष्य लिखा। उन्होंने प्रत्येक नाम की निरूक्ति देते हुए इस सामान्य स्तोत्र को बहुत चमका दिया। ब्राह्मण साहित्य में नाम निरुक्ति की जो आर्थी शैली थी और जो पुराणों में भी स्तोत्रों की व्याख्या करते हुए प्रायः मिलती है, उस शैली से शंकर जैसे धुरंधर आचार्य ने विष्णुसहस्नाम की अद्भुत व्यख्या की जो देखने योग्य और उसमें भरे हुए रस का आनन्द लेने योग्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अ. 149, 14-142 श्लोक तक
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