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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
7. द्रोण पर्व
अध्याय : 1-31
यह महाभारत का सातवां पर्व है, जिसमें विशेषतः युद्ध की कथा ही वर्णित है। धर्म और नीति-विषयक सामग्री का इसमें प्रायः अभाव है। बम्बई-संस्करण में 202 अध्याय हैं और पूना के संशोधित संस्करण में केवल 173 हैं। इनमें लोक-प्रचलित संस्करणों के 20 अध्याय (52-71) काश्मीर की पोथियों में नहीं है और वे प्रक्षिप्त सिद्ध हुए हैं। इनमें मृत्यु का उपाख्यान[1], संजय और उसके पुत्र स्वर्णश्री का उपाख्यान (55) और शोणसराजकीय प्रकरण (53-71) यहाँ द्रोण-पर्व में आगन्तुक ज्ञात होते हैं, क्योंकि यही सामग्री शान्ति पर्व अध्याय 29-31, 248-50 में भी आई है। इस पर्व के मुख्य उपपर्व इस प्रकार हैंः 56. द्रोणाभिषेक पर्व
जब दस दिन तक युद्ध करने के बाद भीष्म धराशयी हो गये तब कौरवों के सामने नया सेनापति चुनने का प्रश्न आया। इसमें कर्ण ने प्रस्ताव किया कि द्रोणाचार्य को सेनापति बनाया जाय। दुर्योधन ने द्रोण से प्रार्थना की, जिसे उन्होंने स्वीकार किया और उनका अभिषेक कर दिया गया। यहाँ उल्लेखनीय है कि जब भीष्म जैसे महारथी युद्ध में असमर्थ हो गये तो कर्ण के मन पर सबसे अधिक चोट लगी और उसने उचित समझा कि युद्ध-भूमि में पड़े हुए भीष्म से परामर्श किया जाय। वह उनके पास गया और भीष्म ने यही कहा कि नया सेनापति चुनकर युद्ध जारी रखना चाहिए, क्योंकि नायक के बिना सेना क्षण भर भी नहीं संभल सकती (न विना नायकं सेना मुहूर्तमपि तिष्ठति, 5-8)। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कौरवों और पाण्डवों की सेना का जो बंटवारा हुआ था, उसमें मध्य देश के क्षत्रिय, जो ययाति के पुत्र पुरु के वंशज थे, प्रायः पाण्डवों की तरफ रहे। ययाति के पुत्र यदु, जिनमें सौराष्ट्र-गुजरात के वृष्णि, अन्धक आदि यादव क्षत्रिय थे, कृष्ण के द्वारा पाण्डव पक्ष में लड़े। इनके अतिरिक्त ययाति के तीन पुत्र तुर्वसु, द्रुह्यु और अनु थे। इनके वंशज प्रायः कौरवों के पक्ष में गये। अनु के वंशज आनव दो भागों में बंट गये, पश्चिमी आनव पंजाब में और पूर्वी बिहार-बंगाल में फैले। मद्र, त्रिगर्त, अम्बष्ठ, शिवी, सौवीर, शूद्र आदि आनव दुर्योधन की ओर थे तथा ययाति के दूसरे पुत्र द्रुह्यु ने गान्धार, बाह्लीक और कम्बोज तक अपने राज्य का विस्तार किया और उत्तर-पश्चिम के शक-यवन भी उसी के साथ हो गये। ये उत्तर पश्चिम के वीर लड़ाके कौरवों के साथी बने। इसके अतिरिक्त ययाति का पांचवां पुत्र तुर्वसु था, जो पश्चिम की ओर अज्ञात रूप में चला गया था, पर कालान्तर में उसी के वंश में सुदूर दक्षिण के केरल, चोल और पाण्ड्य नाम के राजा हुए। वे भी दुर्योधन के पक्ष में ही लड़े। पूर्वी आनव बिहार-बंगाल में फैले और उनके वंशजों ने पांच राज्य स्थापित किये। अंग (पूर्वी बंगाल), वंग, कलिंग, पुण्ड्र (उत्तरी बंगाल), सुम्ह (पश्चिमी बंगाल)। इनमें कर्ण अंग देश का अधिपति था। ये लोग भी कौरव पक्ष में ही आये। इस प्रकार देखा जाय तो उस समय के अधिकांश क्षत्रिय और राज्य दुर्योधन की नीति के पक्षपाती थे। यह कृष्ण का ही व्यक्तित्व था, जिसने कीर्ति और बल से पाण्डव पक्ष को संगठित किया और कंस, शिशुपाल, जरासन्ध एवं मध्य राजस्थान के सोमपति, शाल्व, इन चार कण्टकों को हटाकर मध्य देश का ठोस बिचला भाग पाण्डवों के पक्ष में कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 52-54
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