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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
8. कर्ण पर्व
अध्याय : 1-25
द्रोण के अनन्तर दुर्योधन ने कर्ण को अपना सेनापति नियुक्त किया और युद्ध पहले से ही घोर रूप में शुरू हुआ। पहले दिन भीम के द्वारा क्षेमधूर्त्ति का वध हुआ और उसने अश्वत्थामा के साथ भयंकर युद्ध किया। अर्जुन ने संशप्तक वीरों के साथ पहले के समान घोर संग्राम किया। सहदेव ने दुःशासन को और कर्ण ने भीम को नीचा दिखाया। इस दिन कितने ही छोटे-मोटे द्वन्द्व (या संकुल) युद्ध हुए। दुर्योधन और कर्ण ने मिलकर राजा युधिष्ठिर से संग्राम किया। इस समय एक समस्या उत्पन्न हुई अर्थात कर्ण के लिए एक योग्य सारथी की आवश्यकता पड़ी, जिससे वह भी अर्जुन के समान पराक्रम दिखला सके। कर्ण ने प्रस्ताव किया कि शल्य को उसका सारथी बनाया जाय। शल्य को पहले तो यह बात मान्य न हुई, किन्तु दुर्योधन के बहुत आग्रह करने और शकुनि के बहुत समझाने-बुझाने पर उसने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। पर यह स्वीकृति कर्ण के लिए लाभदायक सिद्ध नहीं हुई। इससे कर्ण के लिए एक बखेड़ा ही खड़ा हो गया। दोनों में काफी कलह उत्पन्न हो गया। कर्ण जब अपनी प्रशंसा में कुछ कहता, तब शल्य उसे वहीं रोककर उल्टे अर्जुन की बड़ाई करने लगता। शल्य ने यहाँ तक कह डाला कि हे कर्ण, यदि तुम युद्ध से भाग न गये, तो अर्जुन के हाथ से बच नहीं सकोगे। स्वतः युद्ध में कमर कसकर उतरे हुए वीर के लिए उसकी प्रशंसा से बढ़कर और कोई अमृत का पान नहीं होता और लांछना से बढ़कर उस वीर के लिए कोई विष नहीं होता, पर कर्ण के भाग में यह अमृतपान न था। शल्य को सारथी कार्य के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से दुर्योधन ने त्रिपुराख्यान का वर्णन किया, जिसमें शिव जी ने देवताओं की ओर से युद्ध करने के लिए एक सर्वदेवमय और सर्वलोकमय रथ सजाया था, तब स्वयं ब्रह्मा जी ने उनका सारथी होना स्वीकार किया था। इसलिए सारथी का पद अत्यन्त सम्मानित समझा जाता था। दुर्योधन की इस बात का शल्य के मन पर प्रभाव हुआ और उसने उसकी बात मान ली। कर्ण को इससे बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने अच्छे हृदय से यह कहाः ईशानस्य यथा ब्रह्मा यथा पार्थस्य केशवः। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 25।7
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